25 वर्ष हुए उसने बीमारी के कारण रमज़ान का रोज़ा तोड़ दिया और अभी तक उसकी कज़ा नहीं किया
प्रश्न: 108759
25 वर्ष पूर्व मेरे पति को रमज़ान से एक दिन पहले साँप ने काट लिया था, दो महीने तक वह खतरे की स्थिति में बने रहे, उसके बाद वाले वर्ष में दस दिनों का रोज़ा तोड़ दिए यहाँ तक कि डाक्टर ने उन्हें रोज़ा रखने की अनुमति प्रदान कर दी। मेरे पति मिस्कीनों को खाना खिलाने की ताक़त नहीं रखते थे ; क्योंकि वह बहुत गरीब (निर्धन) थे। क्या (अब) उनके ऊपर क़ज़ा करना और मिस्कीनों को खाना खिलाना अनिवार्य है ॽ क्योंकि अब उनकी स्थिति आसान और सहज हो गई है, और हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह
के लिए योग्य है।
सर्व प्रथम
:
इस पूरी अवधि के दौरान इस संबंध में शरई हुक्म
के बारे में प्रश्न करने में विलंब करना एक स्पष्ट कोताही और लापरवाही है, आपके पति
पर अनिवार्य यह था कि वह साँप के द्वारा डसे जाने के तुरंत पश्चात उसके बारे में प्रश्न
करते, विशेषकर आप ने उल्लेख किया है कि यह रमज़ान से मात्र एक दिन पहले घटित हुआ था।
आपके पति को चाहिए कि अब इस विलंब पर अल्लाह
सर्वशक्तिमान से तौबा करें, उस पर पश्चाताप करें,
और इस बात का संकल्प
करें कि दूसरी बार इस तरह की कोताही नहीं करेंगे।
हम अल्लाह सर्वशक्तिमान
से प्रश्न करते हैं कि वह उनकी तौबा स्वीकार करे।
दूसरा:
बीमारी उन कारणों में से है जो क़ुर्आन के स्पष्ट
प्रमाण और विद्वानों की सर्व सहमति की रोशनी में रमज़ान के महीने में रोज़ा तोड़ना वैध
कर देते हैं।
इब्ने क़ुदामा ने अपनी किताब
“अल-मुग़्नी” (1/42, 43) में फरमाया
:
“ विद्वानों ने बीमार व्यक्ति के लिए रोज़ा तोड़ने
के वैध होने पर सर्व सहमति व्यक्त की है, और इस संबंध में मूल प्रमाण अल्लाह तआला का
यह फरमान है
:
فَمَنْ كَانَ
مِنْكُمْ مَرِيضًا أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ [البقرة : 184 ]
“तुम में से जो बीमार
हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में (तोड़े हुए रोज़ों की) गिंती पूरी करे।” (सूरतुल बक़रा :
184)
रोज़े के तोड़ने को वैध ठहराने वाली बीमारी वह
है जो सख्त हो जो रोज़े से बढ़ती हो या उसकी शिफायाबी के विलंब होने का भय हो।” (संपन्न)
जिस व्यक्ति ने बीमारी के कारण रोज़ा तोड़ दिया
है उसकी स्थिति के बारे में देखा जायेगा
:
यदि उसकी बीमारी के ठीक होने और शिफायाबी की
आशा नहीं की जाती है : तो उसके ऊपर फिद्या अनिवार्य है,
और वह हर उस दिन के बदले
जिसमें उसने रोज़ा नहीं रखा है एक मिस्कीन को खाना खिलाना है। फिर इसके बाद विद्वानों
ने मतभेद किया है कि यदि वह आदमी निर्धन है उसकी स्थिति कमज़ोर है तो क्या उसकी हालत
ठीक होन के बाद उसके ऊपर फिद्या अनिवार्य होगी या उस के ऊपर से फिद्या समाप्त हो जायेगी
ॽ
किंतु यदि उसकी बीमारी ऐसी है जिसकी शिफायाबी
और उपचार की आशा की जाती है : तो ऐसा व्यक्ति प्रतीक्षा करेगा यहाँ तक कि उसकी बीमारी
ठीक हो जाए,
और उन
दिनों की क़ज़ा करेगा जिनके रोज़े उसने तोड़ दिये थे, और उसके ऊपर कोई फिद्या नहीं है,
तथा उसके लिए रोज़े की
क़ज़ा को छोड़कर फिद्या की ओर हस्तांतरित होना जाइज़ नहीं है।
इमाम नववी – अल्लाह उन पर दया करे – ने
“अल-मजमूअ्” (6/261, 262) में फरमाया
:
“किसी ऐसी बीमारी के कारण रोज़ा रखने से असमर्थ
रोगी जिसके निवारण की आशा की जाती है उस पर तुरंत रोज़ा रखना अनिवार्य नहीं है,
और उसके ऊपर क़ज़ा करना
ज़रूरी है,
और यह
इस स्थिति में है जब उसे रोज़ा रखने से स्पष्ट कष्ट और कठिनाई होती हो।” (समाप्त)
इब्ने क़ुदामा – अल्लाह उन पर दया करे – ने
“अल-मुग़्नी” (3/82) में फरमाया
:
“
वह रोगी जिसके स्वस्थ होने की आशा न हो वह रोज़ा
तोड़ देगा और प्रति दिन के बदले एक मिस्कीन को खाना खिलायेगा . . . और यह ऐसे व्यक्ति
के हक़ में है जिसे क़ज़ा करने की आशा न हो,
यदि उसे इसकी आशा है तो उसके ऊपर फिद्या अनिवार्य
नहीं है,
बल्कि
उसके लिए क़ज़ा की प्रतीक्षा करना और उस पर सक्षम होने पर क़ज़ा करना अनिवार्य है, क्योंकि
अल्लाह तआला का फरमान है:
فَمَنْ كَانَ
مِنْكُمْ مَرِيضًا أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ [البقرة : 184 ]
“तुम में से जो बीमार
हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में (तोड़े हुए रोज़ों की) गिंती पूरी करे।” (सूरतुल बक़रा :
184)
फिद्या की तरफ उस समय जायेंगे जब क़ज़ा करने से
निराश हो जायें।” संछेप के साथ संपन्न हुआ।
हमारे लिए जो बात स्पष्ट होती है – और अल्लाह
तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है – वह यह है कि आपके पति को जो बीमारी लगी थी वह
एक अस्थायी बीमारी थी जिस से शिफायाबी की आशा की जाती थी, और अल्लाह सर्वशक्तिमान ने
उसे आरोग्य (स्वस्थ) कर दिया,
अतः बीमारी के कारण उसने जिन दिनों के रोज़े
तोड़ दिए थे उसके ऊपर उनकी क़ज़ा करना अनिवार्य है, और उसके लिए उन दिनों की संख्या में
मिस्कीनों (निर्धनों) को खाना खिलाना पर्याप्त नहीं है।
किंतु . . . यदि वह क़ज़ा करने के साथ-साथ खाना
भी खिलाता है तो यह सावधानी (एहतियात) का अधिक पात्र है,
विशेषकर आप ने उल्लेख
किया है कि उसकी स्थिति अच्छी (संपन्न) हो गई है और हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह
के लिए है।
तथा प्रश्न संख्या : (26865) का उत्तर देखिए।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर