आप से अनुरोध है कि ला-इलाहा इल्लल्लाह की शर्तों (ज्ञान, यक़ीन…अन्त तक) की व्याख्या करें।
ला-इलाहा इल्लल्लाह की शर्तें
प्रश्न: 12295
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
शैख हाफिज़ अल-हिकमी अपनी कविता "सुल्लमुल उसूल" में कहते हैं:
ज्ञान,यक़ीन,क़बूलियत (स्वीकृति) और आज्ञापालन,जो मैं कह रहा हूँ उसे जान लो।
सच्चाई,इख्लास,और महब्बत,अल्लाह तुम्हें उस चीज़ की तौफीक़ प्रदान करे जिसे वह पसंद करता है।
पहली शर्त :
इल्म (ज्ञान) : इस कलिमा का जो अर्थ है उसे इस तौर पर जानना जो इस से अज्ञानता को समाप्त कर दे,अल्लाह तआला का फरमान है :"तो आप जान लें कि अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य (मा’बूद) नहीं।" (सूरत मुहम्मदः 19)
तथ अल्लाह तआला ने फरमाया : "हां, जो सच बात (अर्थात् ला-इलाहा इल्लल्लाह) को स्वीकार करें और उन्हें इसकी जानकारी भी हो।" अर्थात् उनकी ज़ुबानों ने जिस चीज़ का इक़रार किया है उनके दिल उस का अर्थ जानते हों।
तथा सहीह मुस्लिम में उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस की मौत इस ह़ालत में हुई कि वह जानता हो कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं तो वह जन्नत में दाख़िल होगया।"
दूसरी शर्त
: यक़ीन (विश्वास) : इस कलिमा का इक़रार करने वाला इस कलिमा के अभिप्राय और आशय पर सुदृढ़ विश्वास रखने वाला हो, क्योंकि ईमान में केवल विश्वासपूर्ण ज्ञान ही लाभ देता है, गुमान पर आधारित ज्ञान से काम नहीं चलता, तो फिर जब उस में सन्देह आ जाये तो उस का क्या ऐतिबार होगा? अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल फरमाता है : "ईमान वाले तो वे हैं जो अल्लाह पर और उसके रसूल पर ईमान लायें, फिर शक न करें, और अपने माल से और अपनी जान से अल्लाह के रास्ते में जिहाद करते रहें, अपने ईमान के दावे में यही लोग सच्चे हैं।" (सूरतुल हुजरात :15)
चुनाँचि इस आयत में अल्लाह तआला ने उनके अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाने में सच्चे होने के लिए शर्त लगाई है कि वे शक (सन्देह) करने वाले न हों, शक करने वाला तो मुनाफिक़ों में से है।
सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उनहों ने कहा कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "मैं शहादत देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं और मैं अल्लाह का रसूल हूँ, जो व्यक्ति भी इन दोनों बातों के साथ इन में शक व सन्देह न करते हुए अल्लाह से मुलाक़ात करेगा, वह जन्नत में दाख़िल होगा।" एक और रिवायत में है कि : "जो बन्दा भी इन दोनों कलिमों के साथ इन में शक न करते हुए अल्लाह से मिले गा तो वह जन्नत से रोका नहीं जाये गा।"
तथा मुस्लिम ही में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से एक लम्बी हदीस में रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें अपनी जूतियाँ दे कर भेजा और फरमाया : "इस बगीचे के पीछे जिस आदमी से भी मुलाक़ात हो जो दिल में विश्वास रखते हुए ला-इलाहा इल्लल्लाह की गवाही देता हो, उसे जन्नत की बशारत दे दो।"
चुनाँचि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस कलिमा के कहने वाले के स्वर्ग में जाने के लिए यह शर्त लगाई है कि वह अपने दिल से उस पर विश्वास और यक़ीन रखता हो, उस में शक करने वाला न हो, और जब शर्त नहीं पायी गयी तो मश्रूत भी नहीं पाई जाये गी।
तीसरी शर्त
: क़बूलियत : इस कलिमा का जो तक़ाज़ा (अपेक्षा) है उसे अपने दिल और ज़ुबान से क़बूल करना, अल्लाह तआला ने पिछले लोगों की कहानियाँ बयान करते हुए जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया है उन्हें नजात देने और जिन लोगों ने इसे ठुकरा दिया और नहीं माना उन से इंतिक़ाम लेने की सूचना दी है, अल्लाह तआला ने फरमाया : "ज़ालिमों को और उनके साथियों को और जिन-जिन की वे अल्लाह के सिवा इबादत करते थे (उन सब को) जमा करके उन्हें नरक का रास्ता दिखा दो। और उन्हें ठहरा लो (इसलिए) कि उन से ज़रूरी सवाल किये जाने वाले हैं।" (सूरतुस्साफ्फात :22-24)अल्लाह के इस फरमान तक "ये वे लोग हैं कि जब इन से कहा जाता था कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, तो ये घमण्ड करते थे। और कहते थे कि क्या हम अपने देवताओं को एक दीवाने शाईर के बात पर छोड़ दें।" (सूरतुस्साफ्फात :35-36)
तो अल्लाह तआला ने उन को अज़ाब (सज़ा) देने का कारण उन का ला-इलाहा इल्लल्लाह् कहने से घमंड करना और जो पैगंबर उसे लेकर आये थे उन को झुठलाना करार दिया है। चुनाँचि उन लोगों ने उस चीज़ को नहीं नकारा जिस को यह कलिमा नकारता है और उस चीज़ को स्वीकार नहीं किया जिस को यह स्वीकारता है, बल्कि इंकार और घमंड करते हुये कहने लगे : "क्या इस ने इतने सारे देवताओं (पूज्यों) को एक ही पूज्य कर दिया? वास्तव में यह बड़ी अजीब बात है। उन के सरदार यह कहते हुए चले कि जाओ और अपने देवताओं पर मज़बूत जमे रहो, बेशक इस बात में कोई मक़सद है। यह बात तो हम ने पुराने धर्मों में भी नहीं सुनी, कुछ नहीं, यह तो केवल मनगढ़न्त है।" (सूरत साद :5-7)
तो अल्लाह तआला ने उन्हें झुठला दिया और अपने पैगंबर की ज़ुबानी उन का खण्डन करते हुये फरमाया : "(नहीं, नहीं,) बल्कि नबी तो हक़ (सच्चा दीन) लाये हैं और सभी रसूलों को सच्चा जानते हैं।" (सूरतुस्साफ्फात :37)
फिर इस कलिमा को स्वीकार करने वालों की प्रतिष्ठा बयान करते हुए फरमाया : "लेकिन अल्लाह के मुख्लिस बंदे उन्हीं के लिए नियमित रोज़ी है। (हर तरह के) मेवे और वह सम्मानित और सादर नेमतों वाली जन्नतों में हों गे।" (सूरतुस्साफ्फात :40)
सहीह बुखारी में अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अल्लाह तआला ने मुझे जिस मार्गदर्शन और ज्ञान के साथ भेजा है उसका उदाहरण अधिक वषाZ के समान है जो एक धरती पर हुई, तो उस में कुछ अच्छी ज़मीन थी जिस ने पानी को स्वीकार कर लिया और बहुत अधिक घास और पौदा उगाया। और कुछ वर्षा ऐसी जगह हुई जो चटियल (बंजर) है न तो वह पानी को रोकती (सोखती) है और न ही पौदा उगाती है, तो यही उदाहरण उस आदमी की है जिस ने अल्लाह के धर्म की समझ हासिल की और अल्लाह तआला ने मुझे जिस चीज़ के साथ भेजा है उस से उसे लाभ पहुँचाया, तो उस ने उसे स्वयं सीखा और दूसरों को सिखाया, और उस आदमी की उदाहरण है जिस ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और उस मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं किया जिस के साथ मैं भेजा गया हूँ।"
चौथी शर्त
: इन्क़ियाद (आज्ञापालन) : यह कलिमा जिस चीज़ पर दलालत करता है उसका इस प्रकर अनुपालन करना कि वह उसे त्याग कर देने के विरूद्ध हो, अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल का फरमान है : "और जो व्यक्ति अपने आप को अल्लाह के अधीन कर दे और वह हो भी नेकी करने वाला, तो यक़ीनन उसने मज़बूत कड़ा थाम लिया, और सभी कामों का अन्जाम अल्लाह की ओर है।" (सूरत लुक़्मान :22)
"मज़बूत कड़ा" से अभिप्राय ला-इलाहा इल्लल्लाह है, और अपने आप को अल्लाह के अधीन करने का मतलब अल्लाह की ताबेदारी और अनुपालन करना है, मोहसिन (नेकी करने वाला) का अर्थ यह है कि वह मुवह्हिद (एकेश्वरवादी) हो। और जो व्यक्ति अपने आप को अल्लाह के अधीन न करे और मोहसिन (मुवह्हिद) न हो तो उस ने मज़बूत कड़े को नहीं थामा, और ऐसा ही व्यक्ति उसके बाद अल्लाह के इस फरमान से अभिप्राय है : "और काफिरों के कुफ्र से आप दुखी न हों, अंत में उन सभी का लौटना हमारी तरफ ही है, उस समय उनके किये को हम बता देंगे।" (सूरत लुक़मान :23)
और एक सहीह हदीस में है कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "तुम में से काई आदमी उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि उसकी इच्छा उस चीज़ के अधीन न हो जाये जिसे मैं लेकर आया हूँ।" और यही संपूर्ण और अत्यंत आज्ञापालन और ताबेदारी है।
पाँचवीं शर्त
: ऐसी सच्चाई जो झूठ के विरूद्ध हो: इसका अभिप्राय यह है कि वह इस कलिमा को अपने दिल की सच्चाई से कहे, उसका दिल उसकी ज़ुबान के अनुकूल हो, अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल का फरमान है : "अलिफ. लाम. मीम. क्या लोगों ने यह समझ रखा है कि उन के केवल यह कहने पर कि हम ईमान लाये हैं, वे बिना परीक्षा लिये हुये छोड़ दिये जायेंगे? उन से पहले के लोगों को भी हम ने अच्छी तरह जाँचा, यक़ीनन अल्लाह तआला उन्हें भी जान ले गा जो सच कहते हैं और उन्हें भी जान लेगा जो झूठे हैं।" (सूरतुल अनकबूत :1-3)
तथा मुनाफिक़ों के बारे में जो इस कलिमा के कहने में झूठे होते हैं, अल्लाह तआला ने फरमाया : "और लोगों में से कुछ कहते हैं, हम अल्लाह पर और अंतिम दिन पर ईमान लाये हैं, लेकिन वास्तव में वे ईमान वाले नहीं हैं। वो अल्लाह को और ईमान वालों को धोखा दे रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे स्वयं अपने आप को धोखा दे रहे हैं, और उन को समझ नहीं है। उनके दिलों में रोग है, अल्लाह ने उनके रोग को और बढ़ा दिया और उनके झूठ बोलने के कारण उन के लिए कष्टदायक अज़ाब है।" (सूरतुल बक़रा :8-10)
तथा सहीहैन (बुखारी व मुस्लिम ) में मुआज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जो आदमी भी अपने दिल की सच्चाई से यह गवाही देता है कि अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसके बन्दे और रसूल हैं, तो अल्लाह तआला उसे जहन्नम (नरक) पर हराम कर देगा।"
छठी शर्त
: इख़्लास : इस से अभिप्राय अमल को सभी प्रकार के शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की मिलावट से पवित्र और शुद्ध करना है। अल्लाह तआला का फरमान है : "सुनो! अल्लाह ही के लिए खालिस उपासना करना है।" (सूरतुज़्ज़ुमर :3) तथा एक दूसरे स्थान पर फरमाया : "आप कह दीजिए कि मैं तो खालिस तौर से केवल अल्लाह ही की इबादत (आराधना) करता हूँ।" (सूरतुज़्ज़ुमर :14)
तथा सहीह बुखारी में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "क़ियामत के दिन मेरी शफाअत को सब से अधिक सौभाग्य उस आदमी को प्राप्त होगा जिस ने अपने खालिस दिल या शुद्ध मन से "ला-इलाहा इल्लल्लाह"कहा।"
सातवीं शर्त
: महब्बत : इसका मतलब यह है कि आदमी इस कलिमा और इस के तक़ाजे़ (अपेक्षाओं) और जिस चीज़ पर यह दलालत करता है, उस से महब्बत करे, इसी तरह इस कलिमा की शर्तों की पाबंदी करते हुये इस पर अमल करने वालों से महब्बत करे और इसके विरूद्ध चीज़ों से द्वेष रखे और नफरत करे। अल्लाह तआला का फरमान है : "और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह के साझीदार दूसरों को ठहरा कर उनसे ऐसा प्रेम रखते हैं जैसा प्रेम अल्लाह से होना चाहिए और ईमान वाले अल्लाह से प्रेम में सख्त होते हैं।" (सूरतुल बक़रा :165)
इस आयत में अल्लाह तआला ने यह सूचना दी है कि ईमान वाले अल्लाह से बहुत सख्त महब्बत करने वाले होते हैं (क्योंकि उन्हों ने अल्लाह की महब्बत में उसके साथ किसी अन्य को साझी नहीं ठहराया है, जैसाकि मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) में से अल्लाह की महब्बत के दावेदार लोगों का हाल है जिन्हों ने अल्लाह के सिवा ऐसे सीझीदार बना रखे हैं जिन से वे अल्लाह से महब्बत करने के समान महब्बत करते हैं।"
तथा बुखारी व मुस्लिम में अनस रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में है कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम में से काई आदमी उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि मैं उस के निकट उस की औलाद, उसके माँ-बाप और समस्त लोगों से अधिक प्रिय न हो जाऊँ।"
और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है, तथा अल्लाह की कृपा और दया हो हमारे पैग़ंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर।
स्रोत:
शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद
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