मैं ने तथाकथित यज़ीद बिन मुआविया के बारे में सुना है कि वह पिछले ज़माने में मुसलमानों का ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) था, और वह एक नशा करने वाला व्यर्थ आदमी था, वह वास्तविक रूप से मुसलमान नहीं था। तो क्या यह सच है? आप से निवेदन है कि उपर्युक्त के इतिहास के बार में मुझे अवज्ञत कराएं।
यज़ीद बिन मुआविया के बारे में हमारा रुख
प्रश्न: 14007
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
उत्तर :
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
उसका नाम : यज़ीद बिन मुआविया बिन अबू सुफयान बिन हर्ब बिन उमैया अल-उमवी अद-दिमशक़ी है।
अल्लामा ज़हबी कहते हैं : वह क़ुस्तुन्तुनिया (कांस्टेंटिनोपल) की लड़ाई में उस सेना का अमीर – कमांडर – था, और उसमें अबू अय्यूब अन्सारी जैसे सहाबी भी थे। उसके पिता ने उसे अपने बाद वली अहद (युवराज – क्राउन प्रिंस) नियुक्त किया था। चुनांचे उसने अपने पिता की मृत्यु के समय रजब 60 हिजरी में राज प्रभार संभाला, उस समय उसकी आयु 33 वर्ष थी। उसकी सत्ता चार साल से भी कम थी।
यज़ीद उन लोगों में से है जिसे हम न बुरा भला कहते हैं और न ही उससे महब्बत करते हैं। और दोनों राज्यों (अर्थात उमवी और अब्बासी राज्यों) के खलीफाओं (उत्तराधिकारियों) में उसके समान लोग पाये जाते हैं, इसी तरह आस पास के बादशाहों में भी उसकी तरह के लोग पाये जाते हैं, बल्कि उनमें ऐसे लोग भी हैं जो इससे अधिक बुरे हैं। दरअसल उसका मामला इतना गंभीर इसलिए हो गया क्योंकि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु के 49 वर्ष के बाद ही खलीफा बना था जबकि यह ज़माना नबी सल्लल्नलाहु अलैहि व सल्लम से क़रीब था और सहाबा किराम मौजूद थै, जैसे कि इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु जो कि खिलाफत के उससे और उसके बाप और उसके दादा से अधिक योग्य थे।
उसने अपने शासन का आरंभ शहीद हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की हत्या से किया और उसका अंत हर्रा की घटना पर किया, तो इसकी वजह से वह लोगों के निकट द्वेष और घृणा का पात्र बन गया और उसकी आयु मे बर्कत नहीं हुई और हुसैन के बाद कई लोगों ने उसके विरूद्ध बगावत किया और बाहर निकले, जैसे कि मदीना वाले अल्लाह के लिए उठ खड़े हुए, . . और इब्ने ज़ुबैर . . .
सियर आलामुन्नुबला 5/38.
तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया ने यज़ीद बिन मुआविया के प्रति क्या रुख अपनाना है, इसका उल्लेख करते हुए फरमाया :
यज़ीद बिन मुआविया बिन अबू सुफयान के बारे में लोग तीन पक्षों में बंटे हुए हैं : दो पक्ष दो किनारे और एक पक्ष बीच में।
दो किनारों के पक्षों में से एक का कहना है कि : वह मुनाफिक़ (पाखंडी) काफिर था, और उसने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बदला और इंतिक़ाम लेने के तौर पर, तथा अपने नाना उतबा और अपने नाना के भाई शैबा और अपने मामू वलीद बिन उतबा और इनके अलावा अन्य उन लोगों का बदला लेने के लिए जिन्हें नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा ने अली बिन अबी तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु वगैरह के हाथों बद्र आदि की लड़ाई मे क़त्ल कर दिया था, अल्लाह के रसूल के नवासे की हत्या करने का प्रयास किया। तथा इसी तरह की अन्य चीज़ें कही जाती हैं। यह कथन राफिज़ा (शियाओं) के लिए बहुत आसान है जो अबू बक्र, उमर और उसमान रज़ियल्लाहु अन्हुम को काफिर ठहराते हैं, तो यज़ीद को काफिर कहना अधिक आसान है।
दूसरे किनारे किनारे का पक्ष उन लोगों का हैः जिनका गुमान यह है कि : वह एक नेक और इन्साफ पसंद इमाम (शासक) था, और यह कि वह उन सहाबा में से था जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में पैदा हुए और आप ने उसे अपने हाथों में उठाया और उसके लिए बर्कत की दुआ की। कभी तो कुछ ने उसे अबू बक्र और उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा पर प्राथमिकता दी है, और कभी तो कुछ ने उसे एक सन्देष्टा बना दिया है . . .
हालाँकि ये दोनों ही कथन साधारण बुद्धि रखने वाले तथा मामलात और पिछले लोगों की जीवनियों की जानकारी रखने वालों के निकट स्पष्ट रूप से बातिल (असत्य) हैं, इसीलिए इसे सुन्नत (हदीस) के सुप्रसिद्ध विद्वानों में से किसी एक की तरफ भी मन्सूब नहीं किया गया है, और न तो विचार और अनुभव रखने वाले बुद्धिजीवियों में से किसी की ओर मनसूब किया गया है।
तीसरा कथन : यह है कि वह मुसलमानों के बादशाहों में से एक बादशाह था, उसकी अच्छाइयां भी हैं और बुराईयां भी, और उसका जन्म उसमान रज़ियल्लाहु अन्हु की खिलाफत के युग में हुआ। तथा वह काफिर नहीं था, किन्तु उसके कारण हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत की घटना घटी, और उसने हर्रा वालों के साथ वह कुछ किया जो किया, तथा वह सहाबी नहीं था और न ही अल्लाह के सदाचारी औलिया में से था। यह बुद्धिमानों, ज्ञानियों और अहले सुन्नत व जमाअत के सामान्य लोगों का कथन है।
फिर ये लोग तीन दलों में बंट गए हैं, एक दल उस पर लानत व अभिशाप करता है, एक दल उससे महब्बत रखता है, और एक दल ऐसा है जो न उसे बुरा-भला कहता है और न ही उससे महब्बत रखता है। यही मत इमाम अहमद से मन्सूब है और इसी मत पर उनके अनुयायियों और उनके अलावा सभी मुसलमानों में से संयत लोग हैं। सालेह बिन अहमद कहते हैं कि मैंने अपने पिता से किहा : कुछ लोग कहते हैं : वे यज़ीद से महब्बत करते हैं, तो उन्हों ने कहा : ऐ मेरे बेटे! क्या अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखनेवाला कोई व्यक्ति यज़ीद से महब्बत करेगा !! तो मैं ने कहाः पिता जी, आप उस पर लानत क्यों नहीं भेजते? तो उन्हों ने कहा : बेटे, तुमने अपने पिता को कब किसी पर लानत भेजते हुए देखा है।
तथा अबू मुहम्मद अल-मक़्दसी से यज़ीद के बारे में पूछा गया, तो उन्हों ने कहा कि मुझे जो बात पहुंची है वह यह है कि न उसे बुरा-भला कहा जायेगा और न ही उससे महब्बत की जायेगी। तथा उन्हों ने कहा : मुझे यह बात भी पहुंची है कि हमारे दादा अबू अब्दुल्लाह बिन तैमिय्या से यज़ीद के बारे में पूछ गया तो उन्हों ने फरमाया : न हम उसके बारे में कमी करते हैं और न ही वृद्धि करते हैं। और यह उसके बारे में और उस तरह के लोगों के बारे में सबसे न्यायपूर्ण और सबसे अच्छा कथन है . . . अंत हुआ।
मजमूओ फतावा शैखिल इस्लाम 4/481-484.
स्रोत:
शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद