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जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने के लिए महिला के मस्जिद में जाने का क्या हुक्म है?

प्रश्न: 192960

मैं शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हूँ। कभी-कभी हमें सूचना मिलती है कि अमुक पुरुष या महिला का निधन हो गया है। वे हमारे साथ उसी विभाग में हो सकते हैं जिसमें हम काम करते हैं, या उनके रिश्तेदारों में से हो सकते हैं। हम जानते हैं कि उनके जनाज़ा की नमाज़ कब और कहाँ अदा की जाएगी। इसलिए मैं विशेष रूप से उनके जनाज़ा की नमाज अदा करने के लिए मस्जिद में जाती हूँ और मैं अपनी महिला सहकर्मियों से भी ऐसा करने के लिए आग्रह करती हूँ, चाहे मृतक पुरुष हो, या महिला हो या उनके रिश्तेदारों में से हो। मैं समझती हूँ कि यह हमपर उनका अधिकार है। क्या मेरे इस व्यवहार में कोई गलत बात हैॽ क्योंकि मेरी एक महिला सहकर्मी ने मुझसे फतवा पूछने के लिए कहा है। अगर मेरा यह करना अच्छा है, तो वे मेरा अनुसरण करेंगी, और अगर मैं जो कर रही हूँ वह एक बिदअत (नवाचार) है, तो मैं इसे छोड़ दूँगी।

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

महिलाओं का जनाज़ा की नमाज़ अदा करने के लिए मस्जिद में जाना जायज़ है; क्योंकि शरीयत की दृष्टि से ऐसा करने से रोकने वाली कोई चीज़ नहीं है।

शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह ने फरमाया : “जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना मर्दों और औरतों दोनों के लिए धर्मसंगत है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जो व्यक्ति जनाज़ा पर उपस्थित रहे यहाँ तक कि उसपर नमाज़ पढ़ी जाए, तो उसके लिए एक क़ीरात (सवाब) है। और जो व्यक्ति दफन किए जाने तक उपस्थित रहे, तो उसके लिए दो क़ीरात सवाब है। कहा गया : ऐ अल्लाह के रसूल! दो क़ीरात क्या हैंॽ आपने फरमाया : दो बड़े पहाड़ों के समान” अर्थात सवाब। इस हदीस की प्रामाणिकता पर (बुखारी एवं मुस्लिम की) सहमति है। लेकिन महिलाओं को क़ब्रिस्तान तक जनाज़े के साथ नहीं जाना चाहिए : क्योंकि उन्हें ऐसा करने से मना किया गया है। सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम में उम्मे अतिय्यह रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि उन्होंने कहा : “हमें जनाज़े के पीछे-पीछे जाने से मना कर दिया गया, लेकिन हमें निश्चित रूप से नहीं रोका गया।” जहाँ तक मृतक के जनाज़े की नमाज़ पढ़ने का संबंध है, तो महिला को ऐसा करने से मना नहीं किया गया है, चाहे जनाज़ा की नमाज़ मस्जिद में पढ़ी जाए या घर में या नमाज़ की जगह पर। महिलाएँ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मस्जिद में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ और आपके समय के बाद जनाज़े की नमाज़ पढ़ती थीं।

जहाँ तक क़ब्रों की ज़ियारत करने की बात है, तो यह केवल पुरुषों के लिए है, जैसा कि क़ब्रिस्तान तक जनाज़े के पीछे जाने का मामला है। क्योंकि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ब्रों पर जाने वाली महिलाओं पर ला'नत की है।” “मजमूओ फतावा इब्न बाज़” (13/134) से उद्धरण समाप्त हुआ।  

तथा आप रहिमहुल्लाह ने यह भी कहा : “यह हदीस जिसका प्रश्नकर्ता ने उल्लेख किया है कि : “महिला का जनाजे में कोई हिस्सा नहीं है।” हम इसका कोई आधार नहीं जानते हैं। और हम किसी भी विद्वान को नहीं जानते जिसने इसका वर्णन किया है। बल्कि इस मामले में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से यह वर्णित है कि : “आपने उन औरतों पर ला'नत की है, जो क़ब्रों पर जाती हैं और उनपर सजदे की जगहें बनाती हैं और उनपर दीप लगाती हैं।” तथा आपने महिलाओं को जनाज़ा के पीछे चलने से मना किया है – यानी कब्रिस्तान की ओर ले जाते हुए -, जहाँ तक मस्जिद या नमाज़ की जगहों में लोगों के साथ जनाज़ा की नमाज़ अदा करने की बात है, तो यह ऐसी चीज़ है जो सभी के लिए धर्मसंगत है। महिलाएँ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ अनिवार्य (फ़र्ज़) नमाज़ें और जनाज़े की नमाज़ अदा करती थीं। तथा आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मस्जिद में सा’द बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु के जनाजे की नमाज़ पढ़ी थी।”

“मजमूओ फ़तावा इब्न बाज़” (13/135-136) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इस आधार पर, आपके मस्जिद में जनाज़े की नमाज़ अदा करने के लिए बाहर जाने में कोई हर्ज नहीं है, जब आपके लिए ऐसा करना आसान हो और इसमें कोई अन्य ख़राबी, जैसे कि रोना-पीटना, नौहा करना, या कोई फ़ित्ना न हो।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

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