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10/शव्वाल/1446 , 08/अप्रैल/2025

तौबा करने के बाद हराम धन से छुटकारा पाने के नियम

प्रश्न: 219679

मैंने तौबा करने के बाद हराम धन से छुटकारा पाने के विषय पर कई फतवे पढ़े हैं, लेकिन मेरे लिए इस मुद्दे के बारे में सही दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं हुआ। कभी-कभी उसे दान में देना आवश्यक बताया जाता है, तो कभी उसे उसके मालिक को वापस करने के लिए कहा जाता है और कभी-कभी उससे लाभ उठाने की रुख़्सत दी जाती है, तो क्या एक प्रकार के हराम धन और दूसरे के बीच कोई अंतर है, और इसके बारे में सही दृष्टिकोण क्या हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा एवं गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है, तथा दुरूद व सलाम की वर्षा हो अल्लाह के रसूल पर। इसके बाद :

हराम (अवैध) धन के विभिन्न रूप और स्थितियाँ होती हैं। कभी यह अपने आप में हराम होता है या जिस तरह से इसे अर्जित किया गया है, उसके कारण हराम (अवैध) होता है। जो धन उसके अर्जित किए गए तरीक़े के कारण हराम है, वह कभी उसके स्वामी की सहमति से या उसकी सहमति के बिना लिया गया होता है। तथा उसे अर्जित करने वाला कभी उसके निषेध के बारे में जानकार होता है, या वह उसके बारे में अनभिज्ञ होता है, या उसकी तावील (ख़ुद की अपनी व्याख्या) करने वाला होता है। इनमें से प्रत्येक रूप का अपना अलग हुक्म है।

पहला :

जिस व्यक्ति ने कोई ऐसा धन अर्जित किया है जो अपने आप में हराम (अवैध) है, या कोई ऐसी वस्तु प्राप्त की है जिसे शरीयत ने बेचने, रखने और उपयोग करने से मना किया है, चाहे वह किसी भी तरीक़े से हो : तो वह उसे उसके मालिक को वापस नहीं करेगा, और न ही उसे अपने पास रखेगा। बल्कि उसके लिए उसे नष्ट कर देना अनिवार्य है, तथा उसके लिए उसे बेचकर, या खरीदकर, या उपहार देकर, या अपने पास रखकर या किसी और तरीके से उससे लाभ उठाना जायज़ नहीं है।

अपने आप में हराम धन से तात्पर्य “हर वह वस्तु है जिसमें निषेध स्वयं उसी चीज़ से संबंधित हो”, जैसे शराब, मूर्तियाँ, सूअर, इत्यादि।

दूसरा :

जिस व्यक्ति ने "दूसरे का धन" उसकी सहमति या अनुमति के बिना, अवैध रूप से लिया है, जैसे कि चुराया हुआ धन, हड़पा हुआ धन, सार्वजनिक धन से गबन किया हुआ धन, धोखाधड़ी और छल से लिया गया धन, ब्याज का धन जिसे देने के लिए किसी व्यक्ति को मजबूर किया गया हो, रिश्वत का धन जो किसी व्यक्ति को उसका हक़ पाने के लिए देने के लिए मजबूर किया गया हो, और इसी तरह के अन्य सभी धन : : तो यह धन उसके मालिक को वापस करना अनिवार्य है, और इसके बिना उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो सकती है।

यदि उसने इसे खर्च कर दिया है या किसी और तरह से इसका निपटान कर दिया है, तो यह तब तक उसके ज़िम्मे ऋण बना रहेगा जब तक कि वह इसे उसके मालिक को वापस नहीं कर देता।

इब्नुल-क़य्यिम रहिमहुल्लाह ने कहा :

‘‘यदि ज़ब्त किया गया धन उसके मालिक की सहमति के बिना लिया गया था, और उसे इसका मुआवज़ा नहीं मिला : तो यह उसे वापस कर देना चाहिए। अगर इसे उसे वापस करना संभव नहीं हुआ : तो उसे इसके द्वारा (उसका) कोई क़र्ज चुकाना चाहिए जिसके बारे में उसे पता है कि वह उस पर देय है। अगर ऐसा संभव नहीं है, तो इसे उसके वारिसों को वापस कर देना चाहिए। अगर ऐसा संभव नहीं है, तो इसे उसकी ओर से दान कर देना चाहिए।"

ऐसी स्थिति में, अगर हक़दार व्यक्ति क़ियामत के दिन दान के बदले में मिलने वाले सवाब को स्वीकार कर लेता है : तो वह उसका होगा। लेकिन अगर वह इससे इनकार कर देता है और उस व्यक्ति के अच्छे कर्मों में से ही लेने पर अड़ा रहता है (जिसने उसे अवैध रूप से लिया था) : तो वह उससे अपने धन के बराबर नेकियाँ ले लेगा, और दान का सवाब उसे दान करने वाले को मिलेगा, जैसा कि सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से साबित है।" “ज़ादुल-मआद” (5/690) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इस प्रकार के हराम (अवैध) धन के बारे में अधिक जानकारी के लिए प्रश्न संख्या : (83099) और (169633) के उत्तर देखें।

तीसरा :

जिस किसी ने भी अवैध लेनदेन के माध्यम से अवैध धन अर्जित किया; क्योंकि वह इस लेन-देन के निषेध से अनभिज्ञ है, या वह किसी विद्वान, जिस पर वह भरोसा करता है, के फतवे के आधार पर इसे जायज़ मानता है : तो ऐसी स्थिति में उसे कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, इस शर्त के साथ कि वह इस हराम लेन-देन को छोड़ दे जैसे ही उसे पता चले कि यह हराम (निषिद्ध) है, क्योंकि अल्लाह तआला फरमाता है :

فَمَنْ جَاءَهُ مَوْعِظَةٌ مِنْ رَبِّهِ فَانتَهَى فَلَهُ مَا سَلَفَ

"फिर जिसके पास उसके पालनहार की ओर से कोई उपदेश आए, सो वह (ब्याज खाने से) रुक जाए, तो जो पहले हो चुका, वह उसी का है।" (सूरतुल-बक़रा : 275)।

शैख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया : “जिस बारे में हमारे निकट कोई संदेह नहीं है, वह यह है कि : जो कुछ भी उसने तावील (अपनी मनमानी व्याख्या) या अज्ञानता के आधार पर अर्जित किया है, तो ऐसी स्थिति में जो कुछ पहले गुज़र चुका वह बिना किसी संदेह के उसके लिए अनुमेय है, जैसा कि क़ुरआन व सुन्नत और तर्कसंगत विचार से संकेत मिलता है।” (तफ़सीर आयात अश्कलत अला कसीरिम-मिनल-उलमा” (2/592)

तथा फरमाया :

“आदमी ने जो भी धन उन लेन-देन के माध्यम से अर्जित किया है, जिनके बारे में उम्मत में मतभेद है, और वह उसकी तावील (व्याख्या) कर रहा था और उसे इज्तिहाद, या तक़लीद (अनुकरण), या किसी विद्वान के दृष्टिकोण की नकल करने के कारण उसे जायज़ समझ रहा था, या इसलिए कि किसी विद्वान ने उसे इसका फ़तवा दिया था, इत्यादि।

तो ये धनराशि जिसे उन्होंने कमाया और प्राप्त किया है उन्हें उसे निकालने की आवश्यकता नहीं है, भले ही उसके बाद उन्हें यह स्पष्ट हो जाए कि वे इस मामले में गलत थे और उन्हें फतवा देने वाले ने गलती की थी...

अतः तावील करने वाला मुसलमान जो यह समझता है कि उसने जो कुछ क्रय-विक्रय, किराये का लेन-देन और अन्य मामले किए हैं जिनके बारे में कुछ विद्वान फतवा देते हैं, वह जायज़ है, तो अगर इसके बदले में कुछ धन प्राप्त हो और बाद में उसके मालिकों को यह स्पष्ट हो कि सही दृष्टिकोण यह है कि यह हराम है : तो जो कुछ उन्होंने तावील (व्याख्या) के आधार पर प्राप्त किया है वह धन उनके लिए हराम (निषिद्ध) नहीं है।”

“मजमूउल-फतावा” (29/443) से उद्धरण समाप्त हुआ।

तथा उन्होंने यह भी कहा :

“जिसने कोई ऐसा काम किया जिसके बारे में उसे पता नहीं था कि वह हराम है, फिर उसे पता चला (कि वह हराम है) : तो उसे दंडित नहीं किया जाएगा। यदि उसने सूद पर आधारित लेन-देन किया यह समझते हुए कि वह जायज़ है, और उससे जो कुछ हो सका धन कमाया, फिर उसके रब की ओर से उसे नसीहत आ जाए और वह रुक जाए, तो उसने जो कुछ पहले कमाया है, वह उसका है।”

(तफ़सीर आयात अश्कलत अला कसीरिम-मिनल-उलमा” (2/578) से उद्धरण समाप्त हुआ।

“फ़तावा अल-लज्ना अद-दाईमा लिल-इफ़्ता” में कहा गया है :

“जिस अवधि के दौरान आपने बैंक में काम किया : हम अल्लाह से आशा करते हैं कि वह आपसे उसके गुनाह को क्षमा कर देगा। तथा पिछली अवधि के दौरान बैंक में काम करने के कारण आपने जो धन एकत्र किया और प्राप्त किया : उसमें आप पर कोई पाप नहीं है, यदि आप उसके हुक्म से अनजान थे।"

“फतावा अल-लज्ना अद-दाईमा” (15/46) से उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा :

“अगर वह नहीं जानता था कि यह हराम है, तो जो कुछ उसने प्राप्त किया है वह सब उसी का है और उसपर कुछ भी अनिवार्य नहीं है, या अगर वह किसी विद्वान के फतवा के धोखे में आ गया कि यह हराम नहीं है, तो उसे कुछ भी निकालना (वापस करना) नहीं होगा। अल्लाह तआला फरमाता है :

فَمَنْ جَاءَهُ مَوْعِظَةٌ مِنْ رَبِّهِ فَانتَهَى فَلَهُ مَا سَلَفَ وَأَمْرُهُ إِلَى اللَّهِ

“फिर जिसके पास उसके पालनहार की ओर से कोई उपदेश आए, सो वह (ब्याज खाने से) रुक जाए, तो जो पहले हो चुका, वह उसी का है और उसका मामला अल्लाह के हवाले है।” (सूरतुल-बक़रा : 275)

“अल-लिक़ा अश-शहरी” (19/67 शामिला लाइब्रेरी द्वारा स्वचालित रूप से क्रमांकित) से उद्धरण समाप्त हुआ।

चौथा :

जिस व्यक्ति ने कोई “हरामा (अवैध) धन” अर्जित किया यह जानते हुए कि वह हराम है, तथा उसके मालिक की अनुमति और सहमति से उसे प्राप्त कर लिया, जैसे कि अवैध अनुबंधों के माध्यम से प्राप्त धन, निषिद्ध (हराम) नौकरियों की मज़दूरी, या निषिद्ध (हराम) चीज़ों के व्यापार से प्राप्त लाभ, या झूठी गवाही और सूदी लेन-देन लिखने जैसी निषिद्ध (हराम) सेवाओं की मज़दूरी, या वह धन जो रिश्वत के रूप में लिया गया है ताकि उसे देने वाला व्यक्ति कुछ ऐसा प्राप्त कर सके जिसका वह हक़दार नहीं है, या जुआ, सट्टेबाजी, लॉटरी, भविष्य-कथन (या भाग्य बताने), और इसी तरह के अन्य माध्यम से अर्जित धन... आदि।

तो यह धन जो निषिद्ध और अवैध रूप से कमाया गया है : विद्वानों के दो मतों में से सबसे सही मत के अनुसार उसके मालिक को वापस नहीं किया जाएगा।

इब्नुल-क़य्यिम रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

“यदि प्राप्त किया गया (धन) भुगतानकर्ता की सहमति से था, और उसने अपना अवैध (हराम) मुआवज़ा ले लिया, जैसे कि किसी ने शराब या सूअर का मांस, या व्यभिचार या अनैतिक कार्य के लिए मुआवज़ा (पैसा) दिया : तो इस मामले में मुआवज़ा (पैसा) भुगतानकर्ता को वापस नहीं किया जाएगा, क्योंकि उसने इसे अपनी इच्छा से दिया है, और इसके बदले में अपना अवैध मुआवज़ा (सेवा) ले लिया है। इसलिए उसके लिए मुआवज़ा और वह चीज़ जिसके लिए मुआवज़ा दिया गया है (यानी सेवा) दोनों लेना जायज़ नहीं है, क्योंकि इसमें पाप और आक्रामकता (सरकशी) पर उसकी मदद करना, तथा पाप करने वालों के लिए चीजों को आसान बनाना पाया जाता है।

व्यभिचारी और अनैतिक कार्य करने वाले व्यक्ति को और क्या चाहिए यदि वह जानता है कि वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा और अपना पैसा (भी) वापस पा लेगा? यह ऐसी चीज़ है जिसकी अनुमति देने से शरीयत पवित्र एवं सुरक्षित है, और ऐसा कहना जायज़ नहीं है।” “ज़ादुल-मआद” (5/691) से उद्धरण समाप्त।

अधिकांश विद्वानों के अनुसार, इस हराम धन को गरीबों, जरूरतमंदों, सार्वजनिक हितों आदि में दान देकर उससे छुटकारा पाना उसके लिए आवश्यक है। यदि वह  किसी भी तरह से इसका निपटान कर देता है, तो यह उस पर एक ऋण बना रहता है, और जब भी वह ऐसा करने में सक्षम होता है, तो उसे इसे दान में देना अनिवार्य है। अगर वह किसी भी तरह से इसका निपटान कर देता है (यानी खर्च कर देता है), तो यह उसपर एक क़र्ज़ (बक़ाया) बना रहेगा और जब भी वह ऐसा करने में सक्षम हो, तो उसके लिए उसे दान में देना आवश्यक और अनिवार्य है।

शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने कहा :

“जिस व्यक्ति ने किसी हराम (निषिद्ध) वस्तु या लाभ (सेवा) के लिए मुआवजा लिया, जैसे : शराब ले जाने वाले की मज़दूरी, या क्रॉस (सलीब) बनाने वाले की मजदूरी या वेश्या का भुगतान वग़ैरह : तो वह उसे दान कर दे और उस हराम काम से तौबा कर ले। उसका इस मुआवज़ा को दान में देना उसके किए का प्रायश्चित होगा। क्योंकि इस मुआवज़े से लाभ उठाना जायज़ नहीं है; क्योंकि यह एक बुरा मुआवज़ा (बुरी कमाई) है। तथा इसे इसके मालिक (यानी देने वाले) को वापस नहीं किया जाएगा; क्योंकि वह पहले ही मुआवज़ा प्राप्त कर चुका है। (बल्कि), इसे दान कर दिया जाएगा, जैसा कि कुछ विद्वानों ने स्पष्ट रूप से कहा है, जैसा कि इमाम अहमद ने शराब ले जाने वाले व्यक्ति के मामले में स्पष्टता के साथ कहा है, और जैसा कि मालिक के साथियों और अन्य लोगों ने स्पष्ट रूप से कहा है।” “मजमूउल-फ़तावा” (22/142) से उद्धरण समाप्त।

तथा “अल-इख्तियार ली-ता’लीलिल-मुख्तार” (3/61) में कहा गया है :

“स्वामित्व में आई हुई बुरी (हराम) चीज़ का एकमात्र उपाय यह है कि उसे दान कर दिया जाए।” उद्धरण समाप्त हुआ।

“फतावा अल-लज्ना अद-दाईमा” (14/32) में आया है :

"यदि व्यक्ति हराम धन कमाते समय जानता था कि यह हराम है : तो वह उसके लिए तौबा कर लेने से जायज़ नहीं होगा; बल्कि उसके लिए इसे धर्मार्थ कार्यों और अच्छे कामों पर खर्च करके इससे छुटकारा पाना अनिवार्य है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख इब्न उसैमीन (रहिमहुल्लाह) कहते हैं :

“लेकिन अगर वह जानता था (कि यह निषिद्ध है), तो वह सूद की राशि से छुटकारा पाने के उद्देश्य से उसे दान देकर, या मस्जिदों का निर्माण करके, या सड़कों की मरम्मत करके या इसी तरह का कोई अन्य कार्य करके सूद से छुटकारा पा सकता है।”

“अल-लिक़ा अश-शहरी” (19/67 शामिला लाइब्रेरी द्वारा स्वचालित रूप से क्रमांकित)

इब्नुल-क़य्यिम रहिमहुल्लाह ने यह दृष्टिकोण अपनाया है कि अगर वह एक गरीब आदमी है, तो वह अपनी ज़रूरत के अनुसार इस पैसे से ले सकता है। आप रहिमहुल्लाह ने कहा : “इससे छुटकारा पाने और पूरी तरह से तौबा करने का तरीक़ा : इस धन राशि को दान में देना है। लेकिन अगर उसे इसकी ज़रूरत है, तो वह अपनी ज़रूरत के अनुसार ले सकता है और बाकी वह दान में दे देगा। यह हर उस कमाई का हुक्म है जो उसके मुआवज़े की बुराई के कारण बुरी मानी जाती है, चाहे वह कोई भौतिक वस्तु हो या लाभ।” “ज़ादुल-मआद” (5/691) से उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख़ुल-इस्लाम इब्न तैमिय्या रहिमहुल्लाह अपने एक अन्य दृष्टिकोण में, इस बात की ओर झुकाव रखते हैं कि वह इससे लाभ उठा सकता है और उसके लिए इसे दान में देना अनिवार्य नहीं है, जब कि उसने तौबा कर ली है। आप रहिमहुल्लाह ने फरमाया : “लेकिन जहाँ तक निषेध के बारे में जानने का मुद्दा है,  तो इस पर विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि यह कहा जा सकता है : इस (नियम कि वह पिछले धन से लाभान्वित हो सकता है) का विस्तार यह है कि जिसने शराब की कीमत से पैसा कमाया यह जानते हुए कि यह निषिद्ध है, तो वह पहले प्राप्त राशि का हकदार होगा।

इसी तरह हर वह व्यक्ति है जिसने हराम धन कमाया और फिर तौबा कर लिया, यदि वह पैसा भुगतानकर्ता की सहमति से दिया गया था। यही बात वेश्या की कमाई और ज्योतिषि की फीस पर भी लागू होती है।

यह शरीयत के सिद्धांतों से बहुत दूर नहीं है, क्योंकि शरीयत के सिद्धांत तौबा करने वाले और तौबा न करने वाले के बीच अंतर करते हैं, जैसा कि अल्लाह तआला के इस फरमान में है :

فَمَنْ جَاءَهُ مَوْعِظَةٌ مِنْ رَبِّهِ فَانْتَهَى فَلَهُ مَا سَلَفَ

“फिर जिसके पास उसके पालनहार की ओर से कोई उपदेश आए, सो वह (ब्याज खाने से) रुक जाए, तो जो पहले हो चुका, वह उसी का है।” (सूरतुल-बक़रा : 275)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :

قُلْ لِلَّذِينَ كَفَرُوا إِنْ يَنْتَهُوا يُغْفَرْ لَهُمْ مَا قَدْ سَلَفَ

“(ऐ नबी!) इन काफ़िरों से कह दें : यदि वे बाज़ आ जाएँ, तो जो कुछ हो चुका, उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा।” (सूरतुल-अनफाल : 38) ...

इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि इस धन को नष्ट नहीं किया जाएगा, और इस बारे में विद्वानों के बीच कोई मतभेद नहीं है। बल्कि, या तो इसे दान कर दिया जाएगा, या उस व्यभिचारी और शराबी को वापस कर दिया जाएगा जिससे इसे लिया गया था जबकि वह अपने पाप पर अडिग है, या फिर इसे इस तौबा करने वाले प्राप्तकर्ता के पास रहने दिया जाए।

जहाँ तक इसे व्यभिचारी और शराबी को देने की बात है, तो कोई भी व्यक्ति जो कल्पना कर सकता है कि वह क्या कह रहा है, वह ऐसी बात नहीं कहेगा,  - भले ही कुछ फुक़हा ऐसा कहते हैं - क्योंकि इसमें दोहरी खराबी है...

जहाँ तक इसे दान में देने की बात है : तो यह अधिक उचित विकल्प है।

लेकिन यह कहा जा सकता है कि : यह तौबा करने वाला व्यक्ति दूसरों की तुलना में इसका अधिक हकदार है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि यह तौबा करने वाला व्यक्ति गरीब है, तो वह गरीबों में से अन्य की तुलना में इसका अधिक हकदार है। मैंने इसी का एक से अधिक बार फतवा दिया है। यदि तौबा करने वाला व्यक्ति गरीब है, तो वह उससे अपनी आवश्यकता के अनुसार ले सकता है; क्योंकि वह दूसरों की तुलना में इसका अधिक हकदार है, तथा यह उसके लिए तौबा में सहायक है। लेकिन यदि उसे इसे देने के लिए बाध्य किया गया, तो इससे उसे अत्यधिक नुकसान होगा और परिणामस्वरूप वह तौबा न करने का निर्णय ले सकता है। हालाँकि, जो कोई भी शरीयत के सिद्धांतों पर विचार करेगा, उसे पता चलेगा कि तौबा करने वालों के साथ हर तरह से दयालुता का व्यवहार किया जाता है।

इसके अलावा यह बात भी है, कि इसे लेने में कोई हर्ज (खराबी) नहीं है, क्योंकि वह व्यक्ति यह धन ले चुका है और यह अब इसके स्वामी के नियंत्रण से निकल चुका है, और स्वयं यह धन हराम नहीं है। बल्कि इसे हराम इसलिए कहा गया है कि इसका उपयोग एक हराम काम के लिए किया गया था, लेकिन वह (हराम काम) तौबा के द्वारा क्षमा कर दिया गया है। इसलिए यह उसके लिए गरीबी के साथ बिना किसी संदेह के जायज़ है। लेकिन अगर वह अमीर है, तो भी उसका इसे लेना उचित हो सकता है।  और यह उस व्यक्ति के लिए तौबा को आसान बनाता है, जिसने इस तरह का धन अर्जित किया है...

अल्लाह तआला फरमाता है :

فَمَنْ جَاءَهُ مَوْعِظَةٌ مِنْ رَبِّهِ فَانْتَهَى فَلَهُ مَا سَلَفَ وَأَمْرُهُ إِلَى اللَّهِ

“फिर जिसके पास उसके पालनहार की ओर से कोई उपदेश आए, सो वह (ब्याज खाने से) रुक जाए, तो जो पहले हो चुका, वह उसी का है और उसका मामला अल्लाह के हवाले है।” (सूरतुल-बक़रा : 275)

अल्लाह ने यह नहीं कहा : “जो कोई इस्लाम स्वीकार कर ले”, या “जिसके लिए निषेध स्पष्ट हो जाए।” बल्कि अल्लाह ने फरमाया :

فَمَنْ جَاءَهُ مَوْعِظَةٌ مِنْ رَبِّهِ فَانْتَهَى

”फिर जिसके पास उसके पालनहार की ओर से कोई उपदेश आए, सो वह रुक जाए।” और नसीहत उस व्यक्ति के लिए जो निषेध को जानता है उस व्यक्ति की तुलना में कहीं अधिक होती है जो निषेध को नहीं जातना। अल्लाह तआला ने फरमाया :

يَعِظُكُمُ اللَّهُ أَنْ تَعُودُوا لِمِثْلِهِ أَبَدًا إِنْ كُنْتُمْ مُؤْمِنِينَ

“अल्लाह तुम्हें नसीहत करता है कि पुनः कभी ऐसा न करना, यदि तुम ईमान वाले हो।” (सूरतुन-नूर :17).

“तफ़सीर आयात अश्कलत अला कसीरिन मिनल-उलमा” (2/593-596) से उद्धरण समाप्त हुआ।

“मुसन्नफ़ इब्न अबी शैबा” (7/285) में यह है :

अब्दुल्लाह बिन नुमैर ने हमें अर-रबी’ बिन सा’द से बताया कि उन्होंने कहा : “एक आदमी ने अबू जाफ़र से एक आदमी के बारे में पूछा। उसने कहा : मेरे एक दोस्त ने कुछ निषिद्ध धन अर्जित किया और यह उसके और उसके परिवार की हर चीज़ में मिल गया। फिर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, इसलिए उसने हज्ज और इस घर (काबा) के पास रहने की ओर रुख किया। तो उसके बारे में आपकी क्या राय है (उसे क्या करना चाहिए)?

उन्होंने कहा : उसके बारे में मैं यह समझता हूँ कि उसे अल्लाह से डरना चाहिए, फिर ऐसा दोबारा नहीं करना चाहिए।”

शैख अब्दुर-रहमान अस-सा’दी रहिमहुल्लाह ने कहा :

“अल्लाह तआला ने तौबा करने के बाद सूद के अनुबंध के माध्यम से प्राप्त की गई राशि को वापस करने का आदेश नहीं दिया, बल्कि उसने उस सूद की वापसी का आदेश दिया जो अभी तक प्राप्त नहीं की गई थी। और चूँकि यह उसके मालिक की सहमति से लिया गया था, इसलिए यह हड़पी गई वस्तु के समान नहीं है।

इसके अलावा, यह दृष्टिकोण लोगों के लिए तौबा करने को उस कथन की तुलना में अधिक आसान बनाता और उसके लिए प्रोत्साहित करता है, जिसमें यह कहा गया है कि उसकी तौबा अतीत में अर्जित की गई चीज़ों को वापस करने पर निर्भर करती है, चाहे वह कितनी भी बड़ी राशि हो या ऐसा करना कितना भी कठिन क्यों न हो।” “अल-फतावा अस-सा’दिय्यह” (पृष्ठ 303) से उद्धरण समाप्त हुआ।

उपर्युक्त बातों का सारांश :

  • जिन निषिद्ध वस्तुओं के आर्थिक मूल्य को शरीयत ने अमान्य घोषित कर दिया है, उनसे किसी भी प्रकार का लाभ उठाना जायज़ नहीं है, बल्कि उन्हें नष्ट करके उनसे छुटकारा पाना अनिवार्य है।
  • जो धन उसके मालिक से बिना किसी औचित्य के उसकी अनुमति और सहमति के बिना लिया गया है, वह उसे या उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों को लौटाना अनिवार्य है, और ऐसा किए बिना ज़िम्मेदारी से मुक्ति नहीं मिल सकती। यदि उस तक पहुँचना संभव नहीं है, तो उसे उसकी ओर से दान में दे दिया जाएगा।
  • जिस व्यक्ति ने हराम (निषिद्ध) धन अर्जित किया, लेकिन वह इस बात से अनभिज्ञ था कि यह लेन-देन हराम है, या उसने किसी ऐसे विद्वान का अनुकरण किया, जिसने उसे इसके जायज़ होने का फतवा दिया था : तो उसे निषेध के बारे में पता चलने और उससे तौबा करने के बाद इस धन से छुटकारा हासिल करने की आवश्यकता नहीं है; बल्कि वह इससे लाभ उठा सकता है।
  • जिस व्यक्ति ने हराम धन अर्जित किया, जबकि वह जानता था कि वह हराम है, और उसे उसके मालिक की अनुमति और सहमति से अपने क़ब्ज़े में ले लिया, फिर उससे तौबा कर लिया : तो वह धन उसे वापस नहीं करेगा। परंतु विद्वानों ने इस बारे में मतभेद किया है कि क्या उसके लिए उस धनराशि को दान में देना अनिवार्य है, या उसके लिए उसे लेना और उससे लाभ उठाना जायज़ है, जैसा कि शैखुल इस्लाम इब्ने तैमियाह ने चुना है?

हम जिस चीज़ की सलाह देते हैं यह है :

  • अगर यह तौबा करने वाला व्यक्ति धनवान है और इस धन से छुटकारा पाने में समर्थ है, तथा उसका मन इससे संतुष्ट है : तो उसे यह धन गरीबों को दान कर देना चाहिए, जैसा कि विद्वानों की बहुमत का मत है। तथा ऐसा करने से उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त होने की अधिक संभावना है और यह धर्म के प्रति अधिक सावधानी वाला दृष्टिकोण है।
  • अगर उसकी आत्मा ऐसा करने को राजी नहीं है, या शायद वह उसे तौबा करने से रोक दे या उसके तौबा करने के रास्ते में बाधा बन जाए, या वह गरीब हो और उसे धन की आवश्यकता हो : तो वह उससे लाभ उठा सकता है, जैसा कि शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने इसे चयन किया है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर

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