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हदीस “जिसने मेरी मृत्यु के बाद मेरी क़ब्र की ज़ियारत की तो मानो उसने मेरे जीवन में मेरी ज़ियारत की” की प्रामाणिकता क्या है ॽ

प्रश्न: 2534

मुझे पता चला है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है कि आपकी मृत्यु के बाद आपकी क़ब्र की ज़ियारत करना आपके जीवन काल में आपकी ज़ियारत करने के समान है, इसीलिए जब हम मदीना में आपकी क़ब्र की ज़ियारत करते हैं तो यह हराम नहीं समझा जाता है कि हम आपसे ऐसे ही बात करें जैसे कि यदि आप जीवित होते, और यह कि हम आपसे अपने लिए क़ियामत के दिन अल्लाह के पास शफाअत मांगें। लेकिन मैं इस बात से चिंतित हूँ कि इसमें शिर्क की कोई चीज़ हो सकती है।

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

दारक़ुतनी ने अपनी सुनन (2/278) में अपनी इसनाद के द्वारा हातिब से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : जिसने मेरे मरने के बाद मेरी ज़ियारत की तो मानो उसने मेरे जीवन में मेरी ज़ियारत की… इस हदीस पर बहुत से विद्वानों ने यह हुक्म लगाया है कि यह बातिल (असत्य) है और यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित नहीं है। जिन लोगों ने इस पर यह हुक्म लगाया है उनमें से एक हाफिज़ ज़हबी हैं उन्हों ने अपनी किताब लिसानुल मीज़ान (4/285) में इस हदीस के एक रावी हारून बिन अबी क़ज़आ की जीवनी का परिचय कराते हुए फरमाया : “हारून बिन अबी क़ज़आ अल-मदनी ने एक आदमी से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र की ज़ियारत के बारे में रिवायत किया है, बुखारी ने कहा है कि : उनका पालन (मुताबअत) नहीं किया जायेगा।”

तथा हाफिज़ हजर ने लिसानुल मीज़ान (6/217) में फरमाया : अज़दी ने कहा : हारून बिन अबी क़ज़आ आले-हातिब के एक आदमी से मुर्सल हदीसें रिवायत करते हैं। मैं (अर्थात हाफिज़ इब्ने हजर) कहता हूँ : तो निर्धारित हो गया कि अज़दी का मतलब यही है, तथा इसे याक़ूब बिन शैबा ने भी ज़ईफ कहा है . . .

तथा इसे हाफिज़ इब्ने हजर ने अपनी पुस्तक 'अत्-तल्खीसुल हबीर फी तख्रीज़ अहादीस अर्-राफई अल्-कबीर (2/266) में भी उल्लेख किया है और फरमाया है : इसकी इसनाद में अज्ञात व्यक्ति है। और हाफिज़ का उस आदमी से अभिप्राय आले-हातिब का एक आदमी है।

तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या ने अपनी किताब “अत्-तवस्सुल वल-वसीलह” (पृष्ठः 134) में इस हदीस के विषय में फरमाया : इस हदीस का झूठ होना प्रत्यक्ष है और वह मुसलमानों के धर्म के विरूद्ध है, क्योंकि जिस व्यक्ति ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवनकाल में आपकी ज़ियारत की और वह आप पर ईमान रखनेवाला था, तो वह आपके सहाबा में से हो जायेगा, विशेषकर यदि वह आपकी तरफ हिज्रत करने वालों और आपके साथ जिहाद करने वालों में से है। और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : “मेरे सहाबा को गाली न दो (उन्हें बुरा-भला न कहो) उस अस्तित्व की क़सम! जिसके हाथ में मेरी जान है अगर तुम में से कोई आदमी उहुद पहाड़ के बराबर सोना (अल्लाह के रास्ते में) खर्च कर दे, तब भी वह उनके एक मुद्द (अर्थात 510 ग्राम), बल्कि आधे मुद्द के बराबर भी नहीं पहुँच सकेगा।” (बुखारी एवं मुस्लिम)

जब सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के बाद एक व्यक्ति उन कामों के द्वारा जिनका करना अनिवार्य है, सहाबा के समान नहीं हो सकता, जैसे कि : हज्ज, जिहाद, पाँच समय की नमाज़ें और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दरूद भेजना, तो फिर एक ऐसे काम के द्वारा जो मुसलमानों की सर्वसहमति के साथ अनिवार्य नहीं है, वह उनके समान कैसे हो सकता है !ॽ बल्कि उसके लिए यात्रा करना भी धर्मसंगत नहीं है, बल्कि वह निषिद्ध और वर्जित है। रही बात आपकी मस्जिद के लिए उसमें नमाज़ पढ़ने के उद्देश्य से यात्रा करने की, तथा मस्जिदे अक़्सा के लिए उसमें नमाज़ पढ़ने के उद्देश्य से यात्रा करने की तो वह मुस्तहब (ऐच्छिक) है, और हज्ज के लिए काबा की यात्रा करना वाजिब (अनिवार्य) है। अतः यदि कोई व्यक्ति वाजिब और मुस्तहब सफर करे तो वह उन सहाबा में से किसी एक के समान नहीं हो सकता जिन्हों ने आपके जीवनकाल में आपकी ओर यात्रा किया, तो फिर निषिद्ध यात्रा के द्वारा उनके समान कैसे हो सकता है !ॽ

तथा उन्हों ने पृष्ठ (133) में यह भी फरमाया : निःसंदेह आपकी क़ब्र की ज़ियारत की सभी हदीसें ज़ईफ हैं, दीन के मामले में उनमें से किसी चीज़ पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता, इसीलिए सहीह और सुनन कि किताबों के लेखकों ने इनमें से किसी भी हदीस का उल्लेख नहीं किया है, बल्कि उन्हें केवल उन लोगों ने रिवायत किया जो लोग ज़ईफ हदीसें रिवायत करते हैं जैसे कि दारक़ुत्नी और बज़्ज़ार वगैरह।

शैख अल्बानी ने सिलसिला ज़ईफा (हदीस संख्या : 1021) में इस हदीस के बारे में फरमाया कि : वह बातिल है और फिर उन्हों ने हदीस की इल्लतों का उल्लेख किया और वह यह कि उसमें एक ऐसा आदमी है जिसका नाम नहीं लिया गया है, और हारून अबू क़ज़आ का ज़ईफ होना, और एक तीसरी इल्लत उसमें इख्तिलाफ और इजि़्तराब का पाया जाना है। फिर शैख ने फरमाया : सारांश यह कि हदीस की सनद कमज़ोर है।

तथा उन्हों ने सिलसिला ज़ईफा (हदीस संख्या : 47) में ही फरमाया : बहुत से लोग यह भ्रम रखते हैं कि शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या और उनके तरीक़े पर चलने वाले सलफी लोग आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र की ज़ियारत करने से रोकते हैं, हालाँकि यह झूठ और आरोप है, और यह इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह पर और उन सलफी लोगों पर पहला आरोप नहीं है, जबकि इब्ने तैमिय्या की किताबों से अवगत हर व्यक्ति यह जानता है कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र की जियारत के धर्मसंगत और मुस्तहब होने की बात कहते हैं यदि उसके साथ अवहेलना और बिद्अत की कोई चीज़ मिली हुई नहीं है, उदाहरण के तौर पर उसके लिए सफर व यात्रा करना, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान “तीन मस्जिदों के अलावा किसी अन्य स्थान की यात्रा न की जाए” सर्वसामान्य है, और हदीस में जिस चीज़ को अलग किया गया है वह केवल मस्जिदें नहीं हैं जैसाकि बहुत से लोग गुमान करते हैं, बल्कि हर वह स्थान है जिसका उसमें अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के लिए क़सद किया जाए चाहे वह मस्जिद हो या क़ब्र हो या इसके अलावा कोई अन्य स्थान, इसका प्रमाण अबू हुरैरा की हदीस है कि उन्हों ने कहा :

मैं ने बस्रह बिन अबी बस्रह अल-ग़िफारी रज़ियल्लाहु अन्हु से मुलाक़ात की तो उन्होंने कहाः तुम कहाँ से आ रहे हो ॽ मैं ने उत्तर दियाः तूर से। उन्होंने कहाः यदि तुम से मेरी मुलाक़ात तुम्हारे वहाँ जाने से पहले हो जाती तो तुम वहाँ न जाते, मैं ने कहा : वह क्योंॽ उन्होंने कहा : मैं ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना हैः

“तीन मस्जिदों के अतिरिक्त कहीं और के लिए (उससे बर्कत प्राप्त करने और उस में नमाज़ पढ़ने के लिए) यात्रा न की जाए।” इसे अहमद वगैरह ने सहीह सनद के साथ उल्लेख किया है।

यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सहाबा ने इस हदीस को उसके सामान्य अर्थ में समझा है, और इसका समर्थन इस तथ्य से भी होता है कि उनमें से किसी एक के बारे में भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि उसने किसी क़ब्र की ज़ियारत करने के लिए यात्रा की है, तो वे लोग इस मुद्दे में इब्ने तैमिय्या के पूर्वज हैं, अतः जिसने उनके बारे में आपत्ति व्यक्त की तो वास्तव में उसने सलफ सालेहीन रज़ियल्लाहु अन्हुम के बारे में आपत्ति व्यक्त की, और अल्लाह तआला उस व्यक्ति पर दया करे जिसने यह बात कही है कि :

“हर भलाई पूर्वजों का अनुसरण करने में है और हर बुराई बाद में आने वालों के नवाचार में है।” अंत हुआ।

सारांश यह कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र की जियारत की नीयत से सफर करना बिद्अत और हराम है उस हदीस के आधार पर जिसमें तीन मस्जिदों के अलावा किसी भी स्थान के लिए इबादत के उद्देश्य से यात्रा करने से निषेध वर्णित हुआ है। जहाँ तक मदीना में उपस्थित व्यक्ति के लिए आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र की ज़ियारत करने का मामला है तो वह एक सही और धर्मसंगत काम है, इसी तरह मस्जिदे नबवी में नमाज़ पढ़ने की नीयत से सफर करना अल्लाह तआला की उपासना, आज्ञाकारिता और नेकी का काम है, वास्तव में ग़लती और आपत्ति में वह व्यक्ति पड़ता है जो इन दोनों के बीच अंतर को नहीं समझता कि क्या चीज़ धर्म संगत है और क्या चीज़ निषिद्ध है। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद

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