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ख़ुलअ की परिभाषा और उस का तरीक़ा

प्रश्न: 26247

ख़ुलअ क्या हैॽ तथा उस का सही तरीक़ा क्या हैॽ यदि पति अपनी पत्नी को तलाक़ न देना चाहे तो क्या तलाक़ का संपन्न होना संभव हैॽ तथा अमेरिकी समाज के बारे में आप का क्या विचार है, जहाँ यदि औरत अपने पति को (कभी कभार उसके धार्मिक होने के कारण) नापसंद करती है तो वह यह समझती है कि उसे (अपने पति को) तलाक़ देने की स्वतंत्रता प्राप्त हैॽ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

पत्नी के अपने पति को कुछ मुआवज़ा देकर उससे अलग हो जाने को ख़ुलअ कहते हैं। चुनाँचे पति कुछ मुआवज़ा लेकर अपनी पत्नी को अलग कर देता है। अब यह मुआवज़ा चाहे वह मह्र हो जिसे पति ने पत्नी को दिया था या उस से कुछ अधिक या उस से कुछ कम हो।

ख़ुलअ का बुनियादी प्रमाण अल्लाह तआला का यह फरमान है :

( وَلا يَحِلُّ لَكُمْ أَنْ تَأْخُذُوا مِمَّا آتَيْتُمُوهُنَّ شَيْئاً إِلا أَنْ يَخَافَا أَلا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّهِ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّهِ فَلا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا فِيمَا افْتَدَتْ بِهِ ) البقرة / 229 .

‘‘और तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इस स्थिति के कि दोनों को डर हो कि अल्लाह की (निर्धारित) सीमाओं पर क़ायम न रह सकेंगे। तो यदि तुमको यह डर हो कि वे दोनों अल्लाह की सीमाओं पर क़ायम न रहेंगे तो स्त्री जो कुछ देकर छुटकारा प्राप्त कर ले उसमें उन दोनों के लिए कोई गुनाह नहीं है।’’ (सूरतुल-बक़रा : 229)

तथा सुन्नत से इस का प्रमाण बुख़ारी की वह हदीस है जिस में है कि साबित बिन क़ैस बिन शम्मास रज़ियल्लाहु अन्हु की पत्नी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आईं और कहने लगीं : ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम! मैं साबित बिन क़ैस पर उनकी धार्मिकता अथवा नैतिकता के बारे में कोई दोष नहीं लगाती हूँ, परन्तु मैं इस्लाम में कुफ्र करना नापसंद करती हूँ। (अर्थात मैं नहीं चाहती कि मुसलमान हो कर पति की नाफरमानी करूं।) नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन से फरमाया : ''क्या तुम साबित को उनका बाग़ वापस कर सकती होॽ'' साबित ने उन्हें मह्र में एक बाग़ दिया था। उन्हों ने कहा : हाँ। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने (साबित से) फरमाया : ''बाग़ स्वीकार कर लो और उन्हें छोड़ दो।'' इस हदीस का उल्लेख बुखारी (हदीस संख्या : 5273) ने किया है।

विद्वानों ने इस फैसला से यह नियम ग्रहण किया है कि यदि औरत अपने पति के साथ रहने में सक्षम न हो तो शासक को यह अधिकार है कि वह पति से ख़ुलअ देने का मुतालबा (मांग) करे, बल्कि उसे इसका आदेश दे सकता है।

खुलअ का तरीक़ा :

इसका तरीक़ा यह है कि पति मुआवज़ा ले ले या उसपर (पति-पत्नी) दोनों सहमत हो जाएं, फिर पति अपनी पत्नी से कहे कि मैं ने तुझे छोड़ दिया या यह कहे मैं ने तुझे ख़ुलअ दे दिया या इसी तरह के अन्य शब्दों का इस्तेमाल करे।

तथा तलाक़ पति का अधिकार है। इसलिए यह उसी समय संपन्न होगी जब पति तलाक़ देगा। जैसा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ‘‘तलाक़ का अधिकार उसी को जो पिंडली थामे।’’ अर्थात पति। इस हदीस को इब्ने माजा (हदीस संख्या : 2081) ने रिवायत किया है और शैख अल्बानी ने “इर्वाउल ग़लील” (हदीस संख्या : 2041) में इस हदीस को “हसन” क़रार दिया है।

इसीलिए विद्वानों ने कहा है कि जिस व्यक्ति को अन्यायपूर्वक अपनी पत्नी को तलाक़ देने पर मजबूर किया गया, तो उसने मजबूरी के चलते तलाक़ दे दिया तो उस की यह तलाक़ संपन्न नहीं होगी।'' देखिए: “अल-मुग़्नी’’ (10/352).

और जो आप ने यह उल्लेख किया है कि आप के यहाँ औरत कभी कभी खुद ही सरकारी नियमों के अनुसार अपने आप को तलाक़ दे लेती है, तो यदि यह ऐसे कारण की बुनियाद पर हो जिस की वजह से उसके लिए तलाक़ तलब करना वैध है, जैसे यदि वह पति को नापसंद करे और उसके साथ रहने में सक्षम न हो, या पति के पापी होने और उस के हराम कामों वग़ैरा के करने में घृष्ट होने की वजह से उसे धार्मिक बुनियाद पर नापसंद करे, तो उस के लिए तलाक़ माँगने में कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु ऐसी हालत में वह पति से ख़ुलअ लेगी। अतः वह उसकी दी हुई मह्र उसे वापस कर देगी।

लेकिन यदि उसका तलाक़ का मुतालबा बिना किसी कारण के है, तो यह जायज़ नहीं है, और ऐसी स्थिति में अदालत का तलाक़ का फैसला शरई तलाक़ नहीं शुमार होगी बल्कि बदस्तूर वह उस व्यक्ति की पत्नी रहेगी। इस प्रकार यहाँ एक समस्या पैदा होती है, वह यह कि क़ानून के सामने वह औरत तलाक़ शुदा शुमार की जाती है, इसलिए वह इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद शादी कर सकती है। जबकि वास्तव में वह तलाक़शुदा होने के बजाय एक पत्नी है।

शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह से इसी तरह के मसअला के बारे में पूछा गया तो उन्हों ने जवाब दिया :

''अब हम एक समस्या के सामने हैं। औरत का उस पति के निकाह में बाक़ी रहना उसे किसी दूसरे पति के साथ शादी करने से रोकता है, जबकि ज़ाहिर में अदालत के फैसले के अनुसार उसे उस पति से तलाक़ हो चुकी है, और जब उसकी इद्दत पूरी हो जाएगी तो वह दूसरे व्यक्ति से शादी कर सकती है। इस विषय में मेरा विचार यह है कि इस समस्या से निकलने के लिए अह्ले खैर व सलाह इस मामले में हस्तक्षेप करें, ताकि पति एवं पत्नी के बीच सुलह कराएं, अन्यथा उस औरत पर अनिवार्य है कि वह अपने पति को कुछ मुआवज़ा दे दे, ताकि वह शरई रूप से ख़ुलअ हो सके।''

देखें : मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन की पुस्तक “लिक़ाउल बाबिल मफ्तूह” (फत्वा संख्या : 45) (3/174) संस्करण दारुल बसीरह, मिस्र।

स्रोत

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