एक मुस्लिम महिला से उसके पति ने बहुत बार तीव्र क्रोध की हालत में कहा है कि “तुझे तलाक़ है।” तो इसका क्या हुक्म है, खासकर जब उनके बच्चे हैंॽ
गुस्से की हालत में तलाक़ का हुक्म
Question: 45174
Praise be to Allah, and peace and blessings be upon the Messenger of Allah and his family.
शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह से एक ऐसे व्यक्ति के बारे में पूछा गया, जिसकी पत्नी उसके साथ बुरा व्यवहार करती और उसका अपमान करती थी, इसलिए उसने गुस्से की हालत में उसे तलाक़ दे दिया। तो उन्होंने उत्तर दिया :
“यदि उक्त तलाक़ आपसे अत्यधिक क्रोध और चेतना की अनुपस्थिति की हालत में हुआ था, और यह कि उसके अपशब्दों और अपमान आदि के कारण आपको स्वयं का बोध नहीं रहा और आप खुद को नियंत्रित नहीं कर सके, और यह कि आपने यह तलाक़ तीव्र क्रोध और चेतना की अनुपस्थिति की स्थिति में दिया है, और वह (पत्नी) इसे स्वीकार करती है, या आपके पास इसकी गवाही देने वाले न्यायसंगत गवाह हैं : तो तलाक़ नहीं पड़ेगा; क्योंकि शरीयत के प्रमाणों से इंगित होता है कि क्रोध की तीव्रता में तलाक़ नहीं होता है (और यदि यह चेतना की अनुपस्थिति के साथ है, तो और भी अधिक संभावित है)।
उन्हीं प्रमाणों में से एक यह हदीस है, जिसे अहमद, अबू दाऊद और इब्ने माजा ने आयइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “इग़लाक़ (बलात्) की स्थिति में न तो तलाक़ है और न दासता से मुक्ति।”
विद्वानों के एक समूह का कहना है : 'इग़लाक़' का अर्थ है ज़बरदस्ती है या गुस्सा। इससे उनका तात्पर्य तीव्र क्रोध से है। क्योंकि क्रोधित व्यक्ति के क्रोध ने उसके इरादे को बंद कर दिया। इसलिए वह क्रोध की तीव्रता के कारण मंदबुद्धि वाले, पागल और नशे में ध्वस्त व्यक्ति के समान है। इसलिए उसका तलाक़ नहीं होता है। और अगर यह चेतना की अनुपस्थिति के साथ है और यह कि वह अपने क्रोध की तीव्रता के कारण अपने शब्दों या कार्यों को नियंत्रित नहीं कर सका, तो तलाक़ नहीं होगा।
क्रोधित व्यक्ति की तीन स्थितियाँ हैं :
पहली स्थिति : एक ऐसी अवस्था जिसमें क्रोधित व्यक्ति की चेतना अनुपस्थित होती है (उसे पता नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है)। तो इसे पागलों की श्रेणी में रखा जाएगा और सभी विद्वानों के अनुसार (इस स्थिति में) तलाक़ नहीं होता है।
दूसरी स्थिति : उसका क्रोध तेज़ हो, परंतु उसने अपनी चेतना न खोई हो। बल्कि उसके पास कुछ समझ और कुछ बुद्धि बाक़ी हो। लेकिन उसका क्रोध इतना तीव्र हो गया कि उसे तलाक़ पर मजबूर कर दिया। विद्वानों की सही राय के अनुसार, इस तरह का तलाक भी नहीं होता है।
तीसरी स्थिति : उसका गुस्सा साधारण हो, बहुत तीव्र न हो। बल्कि लोगों से होने वाले अन्य सभी क्रोध की तरह सामान्य हो। यह इस प्रकार का क्रोध है जो उसे किसी चीज़ पर मजबूर करने वाला नहीं है। इस तरह के क्रोध की स्थिति में सभी विद्वानों के निकट तलाक़ हो जाता है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
(“फ़तावा अत-तलाक़” पृष्ठ : 19-21, संग्रह : डॉ. अब्दुल्लाह अत-तैय्यार एवं मुहम्मद अल-मूसा।)
शैख रहिमहुल्लाह ने क्रुद्ध व्यक्ति की दूसरी स्थिति के बारे में जो उल्लेख किया है, उसी को शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या और उनके शिष्य इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुमल्लाह ने अपनाया है, और इब्नुल क़ैयिम ने इस विषय में एक प्रसिद्ध पुस्तिका लिखी है जिसका नाम ''इग़ासतुल-लह्फान फी हुक्मि तलाक़िल-ग़ज़बान'' है। उसमें उन्होंने उल्लेख किया है :
“क्रोध के तीन प्रकार हैं :
पहला प्रकार : मनुष्य का गुस्सा उसके प्रारंभिक और शुरूआती स्थिति में हो, इस प्रकार कि वह उसकी बुद्धि और दिमाग़ को प्रभावित न करे। वह जो कुछ कह रहा है और जो चाहता है, उसे उसका बोध हो; तो ऐसे व्यक्ति के तलाक़ और आज़ादी के घटित होने और उसके अनुबंधों के सही होने में कोई दुविधा नहीं है।
दूसरा प्रकार : उसका गुस्सा अपने चरम पर पहुँच जाए, इस हद तक कि उसके लिए ज्ञान और इच्छा का द्वार बंद हो जाए; उसे इस बात का बोध न हो कि वह क्या कह रहा है और क्या चाहता है, तो ऐसे व्यक्ति के तलाक़ के घटित न होने में कोई विवाद नहीं है। यदि उसका क्रोध इतना तीव्र हो गया कि उसे पता ही नहीं है कि वह क्या कह रहा है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इस स्थिति में उसकी कोई भी बात लागू नहीं होगी। क्योंकि मुकल्लफ़ के शब्दों (बयान) को केवल तभी लागू किया जाता है जब उसके कहने वाले को यह ज्ञान हो कि यह बात उसने कही है और उसका क्या अर्थ है और उसे बोलने की उसकी इच्छा थी।
तीसरा प्रकार : जिसका गुस्सा ऊपर वर्णित दोनों श्रेणियों के बीच में रहता है। चुनाँचे उसका गुस्सा प्रारंभिक स्थिति से बढ़ जाता है, लेकिन वह उसके चरम तक नहीं पहुँचता है कि वह पागल की तरह हो जाए। तो यह विद्वानों के निकट मतभेद का विषय है, और सोच-विचार के योग्य है। तथा शरीयत के प्रमाणों से पता चलता है कि उसका तलाक़, गुलाम मुक्त करना और उसके वे अनुबंध जिनमें पसंद और सहमति का ऐतिबार किया जाता है, लागू नहीं होंगे, और यह एक तरह का 'इग़लाक़' है, जैसाकि इमामों ने इसके साथ उसकी व्याख्या की है।” थोड़े-से संशोधन के साथ “मातालिब ऊलिन-नुहा 5/323” से उद्धरण समाप्त हुआ। इसी के सामन संक्षिप्त रूप से ज़ादुल-मआद 5/215 में है। तथा देखें : अल-मौसूअतुल फ़िक्हिय्या अल-कुवैतिय्यह” (29/18)।
पति को अल्लाह से डरना चाहिए और तलाक़ के शब्द का उपयोग करने से बचना चाहिए, ताकि इससे उसका घर बर्बाद न हो और उसका परिवार न टूटे।
तथा हम पति और पत्नी को समान रूप से नसीहत करते हैं कि वे अल्लाह की सीमाओं को लागू करने में उससे डरे, और पति से अपनी पत्नी के प्रति जो कुछ भी हुआ है, उसपर ईमानदारी से विचार करें कि क्या वह सामान्य क्रोध से है, कि आम तौर से तलाक उसके कारण ही होता है, और वह क्रोध की तीसरी स्थिति है जिसमें विद्वानों की सहमति के अनुसार तलाक़ हो जाता है। तथा वे दोनों अपने धर्म के मामले के प्रति सावधान रहें, ताकि आपके बीच बच्चों की उपस्थिति को देखना इस बात का कारण न बन जाए कि क्रोध को इस तरह से चित्रित करें, जो मुफ्ती को उसके न होने का फतवा देने पर प्रेरित कर – हालाँकि दोनों पक्षों को पता है कि यह उससे कम था।
अतः पति-पत्नी के बीच बच्चों की उपस्थिति उनके लिए तलाक के शब्दों के इस्तेमाल और उसमें लापरवाही से बचने का प्रेरक होना चाहिए, न कि तलाक़ देने के बाद शरई हुक्म के ख़िलाफ़ चालबाज़ी करने, कोई रास्ता निकालने और उसके बारे में फ़ुक़हा की ऱुख़्सतों (रियायतों) को खोजने का कारण होना चाहिए।
हम अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि हम सभी को अपने धर्म के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करें और उसके कर्मकांडों और नियमों का सम्मान करने का सामर्थ्य प्रदान करे।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
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साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर
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