ज़ईफ़ हदीसें
नमाज़ के अंदर मन में सोचने के बारे में एक निराधार हदीस
एक भाई की ओर से मेरे पास यह प्रश्न आया है : मेरे सामने एक हदीस वर्णन की गई, लेकिन वह मुझे याद नहीं है, परंतु उसका अर्थ यह है कि : एक बार पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने साथियों से कह रहे थे कि उनमें से जो भी बिना किसी चीज़ के बारे में सोचे हुए नमाज़ पढ़ने में सक्षम है तो आप उसे अपना चोगा प्रदान कर देंगें। तो अली रज़ियल्लाहु अन्हु आगे बढ़े और उन्होंने नमाज़ पढ़ी। जब नमाज़ पढ़ चुके तो पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे पूछाः क्या तुमने नमाज़ के अलावा किसी अन्य चीज़ के बारे में नहीं सोचा? उन्होंने कहाः क्योंकि नहीं, ऐ अल्लाह के रसूल, मैंने सोचा कि आप मुझे कौन सा चोगा प्रदान करेंगे पुराना या नया? तो क्या यह रिवायत सही है? क्या इस बारे में कोई सहीह हदीस है? और उसका स्रोत क्या है? और वह किस पुस्तक में वर्णित है?शबे-क़द्र की दुआ में “करीम” शब्द की वृद्धि प्रमाणित नहीं है।
यह शैख़ अल्बानी रहिमहुल्लाह की “सहीह तिर्मिज़ी” से उद्धृत है : 3513 - हमसे क़ुतैबा ने बयान किया, उन्होंने कहा हमसे जाफर बिन सुलैमान ज़ुबई ने बयान किया, वह कहमस बिन हसन से रिवायत करते हैं, वह अब्दुल्लाह बिन बुरैदा से रिवायत करते हैं, वह आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत करते हैं, वह कहती हैं कि : “मैंने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम! आपकी क्या राय है यदि मुझे मालूम हो जाए कि कौन सी रात शबे-क़द्र है तो मैं उसमें क्या पढ़ूँॽ आपने फरमाया : “पढ़ो : अल्लाहुम्मा इन्नका अफुव्वुन करीमुन तुहिब्बुल-अ़फ्वा फा’फु अ़न्नी” (अर्थात : हे अल्लाह! तू बहुत क्षमावान एवं अति दयालु है, तू क्षमा करने को पसंद फरमाता है, अतः तू मुझे क्षमा कर दे।) इस हदीस पर शैख़ अल्बानी रहिमहुल्लाह ने सहीह का हुक्म लगाया है। (इब्ने माजा : 3850) फिर शैख़ रहिमहुल्लाह ने “सिलसिला सहीहा” में उल्लेख किया है कि (करीमुन) शब्द किसी प्रतिलिपिकार की ओर से वृद्धि की गई है। क्या सहीह तिर्मिज़ी में (करीमुन) शब्द की वृद्धि शैख़ रहिमहुल्लाह से छूट गई है। या कि यह उनके निकट सही है। यदि यह उनके निकट सिद्ध नहीं है, तो फिर सहीह तिर्मिज़ी में उन्होंने चेतावनी क्यों नहीं दी कि यह एक वृद्धि हैॽक्या हदीस में यह सिद्ध है कि हज्रे-अस्वद को चुंबन करने वाला बिना हिसाब-किताब के स्वर्ग में प्रवेश करेगाॽ
मैं एक हदीस की प्रामाणिकता के बारे में पूछना चाहता हूँ जो मैंने सुनी है, उसके शब्द ये हैं : (जिसने हज्रे अस्वद का चुंबन किया वह बिना किसी हिसाब के स्वर्ग में प्रवेश करेगा।'' मुझे इसकी सनद के बारे में ज्ञान नहीं है। इसलिए मैं हदीस की प्रामाणिकता का हुक्म चाहता हूँ। और अगर हदीस सही नहीं है, तो क्या कोई ऐसा शरर्इ प्रमाण है जो इस बात को दर्शाता है कि जिसने हज्रे अस्वद का चुंबन किया वह बिना हिसाब के स्वर्ग में प्रवेश करेगा या कि यह ऐसी चीज़ है जो मौजूद नहीं हैॽक्या यह सही है कि रोज़ेदारों के रोज़ा इफ़तार करते समय अल्लाह और उसके बंदों के बीच पर्दा उठ जाता है?
क्या यह सही है कि रोज़ा इफ़तार करते समय अल्लाह और उसके बंदों के बीच पर्दा उठ जाता है?हदीस: (ऐ अल्लाह! रजब और शाबान में हमें बर्कत दे, और हमें रमज़ान तक पहुँचा) ज़ईफ है, सही नहीं है।
मैं जानना चाहता हूँ कि क्या रजब की पहली रात को कोई निर्धारित दुआ पढ़ना सुन्नत से प्रमाणित है? और वह दुआ यह है : ''अल्लाहुम्मा बारिक लना फी रजब व शाबान व बल्लिग़ना रमज़ान'' (ऐ अल्लाह! रजब और शाबान में हमें बर्कत दे, और हमें रमज़ान तक पहुँचा) अल्लाह सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करता हूँ कि हमें प्रमाणित सुन्नत पर अमल करने पर सुदृढ़ रखे।क्या यात्रा से पहले क़ुर्आन की कोई विशिष्ट सूरत पढ़ना सुन्नत में साबित है
मैं ने जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस पढ़ी है कि उन्हों ने फरमाया कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘जब तुम यात्रा पर निकलने का इरादा करो तो तुम्हें सूरतुल काफिरून, सूरतुन्नस्र, सूरतुल इख्लास, सूरतुल फलक़ और सुरतुन-नास पढ़ना चाहिए, किंतु एक ही बार में बिस्मिल्लाह से शुरू करो और बिस्मिल्लाह पर अंत करो।” इसलिए मैं क़ुर्आन और हदीस की रोशनी में इसके उत्तर का ज़रूरतमंद हूँ।क्या यह बात सही है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर स्वैच्छिक रोज़े इकट्ठा हो जाते थे तो आप उन्हें शाबान में कज़ा करते थेॽ
इस हदीस की क्या प्रामाणिकता हैः "अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हर महीने तीन दिन रोज़ा रखते थे। और कभी-कभी आप उसे विलंबित कर देते थे यहाँ तक कि आप पर एक साल के रोज़े इकट्ठे हो जाते थे तो आप शाबान के महीने में रोज़ा रखते थे।''पगड़ी के साथ नमाज़ पढ़ने की फज़ीलत में कोई हदीस सह़ीह़ नहीं है
इस हदीस का क्या हुक्म है कि : (पगड़ी के साथ दो रक्अत नमाज़ पढ़ना बिना पगड़ी के सत्तर रक्अत से बेहतर है) ॽशाबान के महीने में प्रत्येक जुमेरात को दो रकअत नमाज़ पढ़ने के बारे में एक मनगढ़ंत हदीस
मुझे इ-मेल के द्वारा एक संदेश प्राप्त हुआ जो इस प्रकार थाः शाबान मुअज़्ज़म के महीने की हर जुमेरात को दो रकअत नमाज़ पढ़ना। अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ''जिस व्यक्ति ने उसमें दो रकअत नमाज़ पढ़ीः वह हर रकअत में सूरतुल फातिहा और एक सौ बार ''क़ुल हुव्ल्लाहु अहद'' पढ़ता है। फिर जब सलाम फेरता है तो एक सौ बार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद पढ़ता हैः तो अल्लाह उसके दीन और दुनिया के मामले में से हर ज़रूरत को पूरा कर देगा।'' मैं इस बात की प्रामाणिकता को सुनिश्चित करना चाहता हूँ। तथा दो रकअत नमाज़ पढ़ने का क्या तरीक़ा है। ज्ञात रहे कि इसमें ''क़ुल हुवल्लाहु अहद'' के एक सौ बार पढ़ने का उल्लेख किया गया है, तो क्या उसे दोनों रकअतों के दौरान पढ़ा जाएगा या उसके बादॽसलातुस्साबीह के बारे में कोई भी हदीस सहीह नहीं है
मैं सलातुत्तस्साबीह के बारे जानना चाहता हूँ, जिसके बार में वर्णन किया गया है कि वह अति महत्वपूर्ण है। उसका प्रमाण अबू दाऊद और तिर्मिज़ी से है, लेकिन हदीस संख्या मालूम नहीं, उस हदीस में है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने चाचा अब्बास रयिल्लाहु अन्हु व अरज़ाहो से फरमाया : ‘‘ऐ चाचा! क्या मैं आपको न दूँ? क्या मैं आपको न प्रदान करूँ? क्या मैं आपको न अता करूँ? क्या मैं आपके साथ भलाई न करूँ? यह दस चीज़ें हैं, अगर आप इन्हें कर लें तो अल्लाह तआला आपके अगले और पिछले, नये और पुराने, गलती से किए गए और जान बूझकर किए गए, छोटे और बड़े, तथा गुप्त और प्रत्यक्ष सभी पापों को क्षमा कर देगा। यह दस गुण हुए, आप चार रकअतें नमाज़ पढ़ें, हर रकअत में सूरतुल फातिहा और कोई एक सूरत पढ़ें, क़ुरआन से फारिग होने के बाद पंद्रह बार यह दुआ पढ़ें : सुब्हानल्लाह, वल-हम्दुलिल्लाह, व ला इलाहा इल्लल्लाह, वल्लाहु अक्बर''। फिर रूकूअ करें और रूकूअ की हालत में वही दुआ दस बार पढ़ें, फिर रुकूअ से अपना सिर उठाएं, तो वही दुआ दस बार पढ़ें। फिर सज्दे में जाएं और सज्दे की हालत में दस बार वही दुआ पढ़ें। फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार वही दुआ पढ़ें। फिर आप सज्दा करें और दस बार वही दुआ पढ़ें। फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार वही दुआ पढ़ें। यह हर रकअत में पचहत्तर बार होगए। इसी तरह आप चारों रकअतों में करें। यदि आप हर दिन एक बार यह नमाज़ पढ़ सकते हैं तो पढ़ें, यदि ऐसा नहीं कर सकते तो हर जुमा को एक बार, यदि यह भी नहीं कर सकते तो हर महीने में एक बार, अगर यह नहीं कर सकते तो हर साल एक बार और यदि यह भी नहीं कर सकते तो अपने जीवन में एक बार पढ़ें।क्या "ला इलाहा इल्लल्लाह अददल हरकाति वस्सुकून'' कहने के बारे में कोई विशेष पुण्य वर्णित हैॽ
मैंने अक्सर फोरमों में देखा है और मुझे ईमेल प्राप्त होते रहते हैं कि : पूर्वजों में से एक आदमी ने कहा : ''ला इलाहा इल्लल्लाह अददा मा कान, व अददा मा यकून, व अददल हरकाति वस्सुकून'' (‘अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं’ उन चीज़ों की संख्या के बराबर जो हो चुकीं, और उन चीज़ों की संख्या के बराबर जो होंगी, तथा हरकात (आंदोलन) और सुकून (ठहराव) की संख्या के बराबर)। फिर पूरे एक साल बीत जाने के बाद, उन्होंने इसे फिर से कहा, तो इसपर फरिश्तों ने कहा : हम (अभी) पिछले वर्ष की नेकियों के लिखने से फ़ारिग़ नहीं हुए हैं।यह हदीस कि ''इस्लाम में सैर सपाटा नहीं है'' सहीह नहीं है।
यह हदीस कि ''इस्लाम में सियाहत (यानी सैर सपाटा) नहीं है'' कहाँ तक सहीह है ?रमज़ान की फज़ीलत में एक ज़ईफ हदीस का वर्णन
क्या वह हदीस सहीह है जो सलमान अल-फारिसी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : (अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शाबान के अंतिम दिन में हमें भाषण देते हुए फरमाया : ऐ लोगो, तुम्हारे ऊपर एक महान बर्कत वाले महीने ने छाया किया है, ऐक ऐसा महीना जिसमें एक रात ऐसी है जो एक हज़ार महीने से बेहतर है, अल्लाह तआला ने उसके रोज़े को अनिवार्य किया है और उसकी रात के क़ियाम को स्वैच्छिक क़रार दिया है, जिस व्यक्ति ने उसमें किसी भलाई के काम के द्वारा (अल्लाह की) निकटता तलाश किया तो वह ऐसे ही है जैसे किसी ने उसके अलावा में कोई फरीज़ा अदा किया, और जिसने इस महीने में कोई फर्ज़ अदा किया तो वह ऐसे ही है जैसे किसी ने उसके अलावा में सत्तर फरीज़ा अदा किया, और इस महीने का पहला हिस्सा रहमत है, उसका मध्य हिस्सा मग़्फिरत (क्षमा) है और उसका अंतिम हिस्सा नरक से मुक्ति है ... हदीस के अंत तक).ईद की रात को क़ियामुल्लैल करने की फज़ीलत में एक ज़ईफ हदीस
क्या ईद की रात को क़ियाम करने की फज़ीलत में वर्णित हदीस सहीह है ॽ