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रोज़े के फ़िद्या में खाना खिलाने के बदले पैसा निकालना जायज़ नहीं है

प्रश्न: 39234

एक बीमार बूढ़ा आदमी रोज़ा नहीं रख सकता। क्या उसके लिए खाना खिलाने के बदले पैसा निकालना जायज़ हैॽ

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

“हमें एक महत्वपूर्ण नियम ज्ञात होना चाहिए, जो यह है कि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने जिसका उल्लेख “खाना खिलाने” या “भोजन” के शब्द के साथ किया है, उसका भोजन ही होना आवश्यक है। अल्लाह तआला ने रोज़े के विषय में फरमाया :

 وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْراً فَهُوَ خَيْرٌ لَهُ وَأَنْ تَصُومُوا خَيْرٌ لَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُونَ

البقرة : 184

“और जो लोग (कठिनाई से) इसकी ताक़त रखते हैं, फिद्या (छुड़ौती) में एक गरीब को खाना दें। फिर जो अपनी ख़ुशी (स्वेच्छा) से (अतिरिक्त) नेकी करे तो यह उसी के लिए अच्छा है, लेकिन तुम्हारा रोज़ा रखना तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है, यदि तुम जानते हो।'' (सूरतुल बक़रा : 184)

तथा क़सम के कफ़्फ़ारा (अर्थात क़सम तोड़ने के परायश्चित) के विषय में फरमाया :

 فَكَفَّارَتُهُ إِطْعَامُ عَشَرَةِ مَساكِينَ مِنْ أَوْسَطِ مَا تُطْعِمُونَ أَهْلِيكُمْ أَوْ كِسْوَتُهُمْ أَوْ تَحْرِيرُ رَقَبَةٍ فَمَن لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلاثَةِ أَيَّامٍ ذٰلِكَ كَفَّارَةُ أَيْمَانِكُمْ إِذَا حَلَفْتُمْ وَٱحْفَظُوۤاْ أَيْمَاٰنَكُمْ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمْ ءَايَـٰتِهِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ

المائدة : 89

“तो उसका कफ़्फ़ारा दस गरीबों को औसत दर्जे का खाना खिलाना है जो तुम अपने परिवार को खिलाते हो, या उन्हें कपड़े देना, या एक गर्दन (गुलाम या लौंडी) आज़ाद करना है। लेकिन जो इसका सामर्थ्य न रखे, तो उसे तीन दिन रोज़ा रखना चाहिए। यह तुम्हारी क़समों का कफ़्फ़ारा है जब तुम क़सम खा लो, तथा तुम अपनी क़समों का ध्यान रखो। इसी तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपने अहकाम बयान करता है ताकि तुम आभारी (कृतज्ञ) बनो।” (सूरतुल मायदा : 89).

ज़कातुल-फ़ित्र के बारे में : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ज़कातुल-फ़ित्र को एक साअ खाना (खाद्य) निर्धारित किया है। इसलिए शरीयत के ग्रंथों में जिसका उल्लेख भोजन या खिलाने के शब्द के साथ किया गया है, उसके बदले में दिरहम (यानी पैसे) देना पर्याप्त नहीं है।

इसके आधार पर, वह बूढ़ा व्यक्ति जिसे रोज़ा रखने के बजाय खाना खिलाना था, अगर वह उसके बदले पैसे निकालता है तो उसके लिए पर्याप्त नहीं होगा। यहाँ तक ​​कि अगर वह भोजन के मूल्य का दस गुना (पैसा) निकालता है, तो यह उसके लिए पर्याप्त नहीं होगा। क्योंकि यह शरीयत के ग्रंथ में उल्लिखित बात से विमुखता है। इसी तरह ज़कातुल-फ़ित्र का भी मामला है, यदि उसने भोजन के मूल्य का दस गुना (पैसा) निकाला है, तो यह गेहूँ के एक साअ के स्थान पर पर्याप्त नहीं होगा। क्योंकि शरीयत के ग्रंथों में मूल्य का उल्लेख नहीं किया गया है। और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है : 'जिसने कोई ऐसा काम किया जो हमारी शरीअत के अनुसार नहीं है, तो उसे रद्द (अस्वीकृत) कर दिया जाएगा।''

इस आधार पर, हम उस भाई से कहते हैं जो बुढ़ापे के कारण रोज़ा रखने में सक्षम नहीं है : आप प्रत्येक दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को खाना खिलाएँ। आपके लिए खाना खिलाने के दो तरीकें हैं :

पहला तरीक़ा : आप इसे उन्हें उनके घरों में वितरित कर दें, प्रत्येक व्यक्ति को एक-चौथाई साअ चावल दें और उसके साथ कोई सालन भी कर दें।

दूसरा तरीक़ा : आप भोजन बनाएँ और उतनी संख्या में गरीब लोगों को आमंत्रित करें जिन्हें आपके लिए खाना खिलाना ज़रूरी है। इसका अर्थ यह है कि अगर दस दिन बीत चुके हैं, तो आप रात का खाना बना सकते हैं और दस गरीबों को खाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं। इसी तरह आप दूसरे दस दिन और तीसरे दस दिन बीतने पर कर सकते हैं। जैसे कि अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु जब बूढ़े हो गए और रोज़ा रखने में असमर्थ हो गए, तो रमज़ान के अंतिम दिन तीस गरीबों को खाना खिलाते थे।” उद्धरण समाप्त हुआ।

स्रोत

“मजमूओ फ़तावा इब्ने उसैमीन” (19/116).

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