उपासना के अधिनियम
आदत और इबादत के बीच
क्या किसी इबादत का आदी और अभ्यस्त हो जाने की समस्या का कोई हल है। अर्थात जब मैं किसी निश्चित सूरत का पाठ करता हूँ तो मुझे बहुत खुशू (तन्मयता व एकाग्रता) का आभास होता है। लेकिन कुछ दिनों के बाद यह खुशू कमज़ोर हो जाता है, मानो कि मेरा दिल अर्थों को समझने और उनपर विचार करने का आदी हो गया है, और उनके साथ संतुष्ट हो गया है। यही मामला कुछ दुआओं को करने के साथ होता है, तो क्या इसका कोई समाधान हैॽस्वयं वांछित रोज़े और ग़ैर स्वयं वांछित रोज़े के बीच नीयत साझा करने से अभिप्राय
हम स्वयं वांछित वांछित रोज़े के बीच अंतर कैसे करें, ताकि रोज़े में नीयत साझा करना सही हो सकेॽज़रूरत और अकाल के समय दान करना नफली उम्रा करने से बेहतर है
मैं ने कुछ धर्म प्रचारकों को यह कहते हुए सुना है कि : पैसे के लिए मजबूर मुसलमानों पर दान करना जैसे कि वे लोग जो अकाल से पीड़ित हैं, रमज़ान के महीने में उम्रा करने से बेहतर है। इस बारे में आपकी क्या राय है?क्या बुराई को दूर करने की नीयत से बलिदान करना जायज़ है?
मैं चार वर्ष से शादी शुदा हूँ लेकिन मेरी कोई संतान नहीं है। अल्लाह का शुक्र है कि हाल ही में मुझे सूचना मिली है कि मेरी पत्नी गर्भवती है। चुनाँचे मैं ने अपने पिता की सलाह पर दो जानवर बलिदान किए और उन्हें विशुद्ध रूप से अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी और अपनी पत्नी की तरफ से ज़रूरतमंद मुसलमानों में वितरित कर दिया। इस्लामी शरीअत में इसका क्या हुक्म है?इबादत में रियाकारी का प्रवेश करना
क्या मनुष्य को ऐसे कार्य का सवाब (प्रतिफल) प्राप्त होगा जिसमें रियाकारी (दिखावा और पाखंड) पाई जाती हो, फिर कार्य के दौरान नीयत (इरादा) बदल कर विशुद्ध अल्लाह के लिए हो जाए? उदाहरण के तौर पर मैं क़ुरआन मजीद की तिलावत से फारिग हुआ और मेरे अंदर रियाकारी (दिखावा) का तत्व प्रवेश कर गया, लेकिन अगर मैं ने अल्लाह के बारे में सोचकर इस सोच का विरोध कर लिया तो क्या इस तिलावत पर मुझे सवाब मिलेगा, या कि रियाकारी के कारण यह नष्ट हो जाएगा? यहाँ तक कि अगरचे रियाकारी कार्य के समाप्त होने के बाद आई है ?