क्या बीमार व्यक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ है कि वह रोज़ा तोड़ दे, अथवा यह कि वह कष्ट सहन करके रोज़ा रखे ?
क्या बीमार के लिए रमज़ान में रोज़ा रखना सर्वश्रेष्ठ है ?
प्रश्न: 11107
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
अगर रोज़ा रखना बीमार के लिए कष्ट और कठिनाई का कारण बनता है, तो उस के लिए सर्वश्रेष्ठ यह है कि वह रोज़ा तोड़ दे और जिन दिनों का रोज़ा तोड़ दिया है उनकी क़ज़ा करे।
उसके लिए कष्ट उठाकर रोज़ा रखना पसन्दीदा (ऐच्छिक) नहीं है। इसका प्रमाण निम्नलिखित है :
1- इमाम अहमद (हदीस संख्या : 5832) ने इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः : "अल्लाह तआला इस बात को पसन्द करता है कि उसकी रूख्सतों (छूट) को अपनाया जाये जिस तरह कि वह इस बात को नापसन्द करता है कि उसकी अवज्ञा की जाये।" इसे अल्बानी ने इर्वाउल गलील (हदीस संख्या : 564) में सहीह कहा है।
2- इमाम बुखारी (हदीस संख्या : 6786) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2327) ने आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा :"अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को दो चीज़ों में से किसी एक को चयन करने का अधिकार दिया जाता, तो आप उन में से सब से अधिक आसान चीज़ को चयन करते थे जब तक कि वह गुनाह का काम न होता, यदि वह गुनाह का काम होता तो आप उस से लोगों में सबसे अधिक दूर रहते थे।"
इमाम नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं : इस हदीस में इस बात का प्रमाण है कि सबसे आसान और विनम्र चीज़ को चयन करना मुस्तहब (पसन्दीदा) है जब तक कि वह हराम (निषिध) या मकरूह (घृणित) न हो। (नववी की बात समाप्त हुई)
बल्कि बीमार आदमी के लिए मकरूह और नापसन्दीदा (घृणित) है कि वह अपने ऊपर रोज़े के कष्ट और कठिनाई का अनुभव करने के साथ रोज़ा रखे। और यदि उसे रोज़े के कारण हानि पहुंचने का भय हो तो उसका रोज़ा रखना हराम भी हो सकता है।
अल्लामा क़ुर्तुबी रहिमहुल्लाह (2/276) कहते हैं :
बीमार की दो स्थितियाँ हैं :
पहली : वह किसी भी हालत में रोज़ा रखने की ताक़त न रखता हो, तो उस पर रोज़ा तोड़ देना वाजिब है।
दूसरी : वह कष्ट और कठिनाई के साथ रोज़ा रखने पर सक्षम हो, तो ऐसे व्यक्ति के लिए रोज़ा तोड़ देना मुस्तहब है, और कोई जाहिल (शरीयत के हुक्म से अनभिज्ञ) आदमी ही रोज़ा रखेगा। (क़ुर्तुबी की बात समाप्त हुई)
तथा अल्लामा इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह अपनी किताब "अल-मुग़्नी" (4/404) में फरमाते हैं :
यदि बीमार ने कष्ट और कठिनाई सहन करके रोज़ा रखा, तो उसने एक मकरूह (घृणित और नापसन्दीदा) काम किया, क्योंकि यह अपने आप को नुक़सान पहुँचाने, अल्लाह तआला की आसानी को छोड़ देने और उसकी रूख्सत (छूट) को अस्वीकार कर देने पर आधारित है। (इब्ने क़ुदामा की बात समाप्त हुई)
तथा शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह अपनी किताब "अश्शरहुल मुम्ते" (6/352) में फरमाते हैं :
इस से हमें कुछ मुजतहिदीन और बीमारों की गल्ती का पता चलता है जिन पर रोज़ा रखना कठिन और कष्टदायक होता है और कभी कभार उनके लिए हानिकारक होता है,किन्तु इसके उपरान्त भी वे लोग रोज़ा तोड़ने से इनकार करते हैं, तो हम (ऐसे लोगों के बारे में) कहेंगे : इन लोगों ने गल्ती की है कि इन्हों ने अल्लाह सर्वशक्तिमान की करमनवाज़ी (दानशीलता) को अस्वीकार कर दिया, उसकी रूख्सत को क़बूल नहीं किया और अपने आप को हानि पहुँचाया, हालांकि अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल फरमाता है : "और अपने आप को क़त्ल न करो।" (सूरतुन निसा : 29) (इब्ने उसैमीन की बात समाप्त हुई)
तथा प्रश्न संख्या : (1319) भी देखिये।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर
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