यदि मैं अपने पिता की क़ब्र की ज़ियारत करना चाहता हूँ, तो मुझे क्या करना चाहिएॽ क़ब्रिस्तान की ज़ियारत के क्या शिष्टाचार हैंॽ क्या वहाँ कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिनको ध्यान में रखा जाना चाहिएॽ
क़ब्रों की ज़ियारत के शिष्टाचार
प्रश्न: 14287
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
नसीहत हासिल करने और आखिरत को याद करने के लिए क़ब्रों की ज़ियारत करना धर्मसंगत है। बशर्ते कि वह वहाँ कोई ऐसी बात न कहे जिससे अल्लाह सर्वशक्तिमान क्रोधित होता है, जैसे अल्लाह तआला को छोड़ कर क़ब्र में दफन किए गए व्यक्ति को पुकारना, संकट में उससे मदद मांगना, या उसे पापों से पवित्र बतलाना, या उसके लिए स्वर्ग को सुनिश्चित करना, इत्यादि।
क़ब्रों की ज़ियारत करने का उद्देश्य निम्निलिखित दो चीज़ें हैं :
क – ज़ियारत करने वाला मृत्यु और मृतकों को याद करके खुद लाभ उठाता है। उसके सामने यह बात होती है कि मृतकों का ठिकाना या तो स्वर्ग है या नर्क। यही क़ब्रों की ज़ियारत का पहला उद्देश्य है।
ख – मृतक पर सलाम पढ़कर, तथा उसके लिए दुआ और इस्तिग़फार (क्षमा याचना) करके, उसे लाभ पहुँचाना और उसपर उपकार करना। और यह चीज़ मुसलमान मृतक के साथ विशिष्ट है। क़ब्रों की ज़ियारत के समय पढ़ी जाने वाली दुआओं में से एक दुआ यह है :
السلام عليكم أهل الديار من المؤمنين والمسلمين، وإنا إن شاء الله بكم لاحقون، نسأل الله لنا ولكم العافية
उच्चारणः “अस्सलामो अलैकुम अह्लद्दियारे मिनल-मूमिनीन वल-मुस्लिमीन, व-इन्ना इन्-शा-अल्लाहो बिकुम लाहिक़ून, नस्अलुल्लाहा लना व-लकुमुल आफियह”
“ऐ मोमिनों और मुसलमानों के घराने वालो! तुम पर सलाम (शान्ति) हो, इन शा अल्लाह हम तुम से मिलने वाले हैं, अल्लाह हम में और तुम में से पहले जानेवालों और पीछे (बाद में) जानेवालों पर दया करे, हम अल्लाह तआला से अपने लिए और तुम्हारे लिए आफियत (सुख-शांति) का प्रश्न करते हैं।”
दुआ में दोनों हाथों का उठाना जायज़ है, क्योंकि आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस है, वह कहती हैं कि : (एक रात अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बाहर निकले, तो मैंने बरीरह रज़ियल्लाहु अन्हा को आप के पीछे भेजा कि वह देखें कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कहाँ गये हैं। वह कहती हैं : आप “बक़ीउल ग़रक़द” की तरफ गए और “बक़ीअ़” में खड़े हुए, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दोनों हाथों को उठाया, और फिर आप वापस हुए। बरीरह मेरे पास वापस आईं और मुझे बताया। जब सुबह हुई तो मैंने इसके बारे में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछते हुए कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! आप रात में कहाँ निकले थेॽ आप ने फरमाया :“मुझे “बक़ीअ़” वालों की तरफ भेजा गया था ताकि मैं उनके लिए दुआ करूँ।”
परन्तु क़ब्र वालों के लिए दुआ करते समय वह अपना चेहरा क़ब्रों की ओर नहीं करेगा, बल्कि काबा यानी क़िब्ला की ओर मुँह करेगा। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ब्रों की तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़ने से रोका है, और दुआ नमाज़ का सार और बुनियाद है। जैसा कि यह बात सर्वज्ञात है, इसलिए दुआ का वही हुक्म होगा जो नमाज़ का हुक्म है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
(दुआ ही इबादत है।) और फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह आयत पढ़ी:
وقال ربكم ادعوني أستجب لكم
“तुम्हारे रब ने कहा कि तुम मुझे पुकारो मैं तुम्हारी दुआएँ स्वीकार करूँगा।” (ग़ाफिर : 60)
तथा वह मुसलमानों की क़ब्रों के बीच में अपने जूतों सहित न चले। उक़्बा बिन आमिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
(यदि मैं अंगारे या तलवार पर चलूँ, या अपना जूता अपने पाँव में सी लूँ, यह मुझे इस बात से ज़्यादा पसंदीदा है कि मैं किसी मुसलमान की क़ब्र पर चलूँ, और मैं कोई अंतर नहीं समझता कि मैं क़ब्रों के बीच में शौच करूँ या बाज़ार के बीच में।'' (यानी क़ब्रों के बीच में शौच करना बाज़ार में शौच करने जैसा है)। इस हदीस को इब्ने माजा (हदीस संख्या : 1567) ने रिवायत किया है।
अल्लाह सर्वशक्तिमान से हम दुआ करते हैं कि वह हमारे और मुसलमानों के मृतकों पर दया करे।
स्रोत:
शैख़ अल्बानी की पुस्तक : “मुख़्तसर अहकामुल जनाइज़” से थोड़े संशोधन के साथ उद्धृत