मेरे पास एक बुकशाप है जिसमें निसाब (यानी ज़कात अनिवार्य होने की न्यूनतम सीमा) के मूल्य के बराबर या उससे अधिक मूल्य का सामान है, किंतु मेरे पास धन (मुद्रा) नहीं है ताकि मैं ज़कात का भुगतान कर सकूँ, और साल गुज़र चुका है, प्रश्न यह है कि : क्या मैं प्रतीक्षा करूँ यहाँ तक कि मेरे पास प्रयाप्त धन हो जाए फिर ज़कात का भुगतान करूँ, या कि ज़कात निकालने के लिए मैं क़र्ज़ लूँ?
धन न होने के कारण व्यापार के सामान की ज़कात को विलंब करने का हुक्म, और क्या उसके लिए ज़कात निकालने के लिए कर्ज़ लेना अनिवार्य है ?
प्रश्न: 177963
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
सर्व प्रथम :
व्यापार के सामान में ज़कात अनिवार्य है जब वह स्वयं या उसके साथ केश (नक़दी) आदि मिलाकर निसाब को पहुँच जाए और उस पर एक साल गुज़र जाए।
साल पूरा होने पर उसका मूल्यांकन किया जायेगा चाहे वह खरीदारी के भाव से अधिक यह कम हो, और उससे चालीसवाँ भाग (2.5 %) निकालेगा।
दूसरा :
जब धन निसाब को पहुँच जाए और उस पर साल गुज़र जाए तो तुरंत ज़कात निकालना अनिवार्य है, और बिना किसी कारण के उसको विलंब करना जायज़ नहीं है।
नववी रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ‘‘जब ज़कात अनिवार्य हो जाए और उसका निकालना संभव हो तो उसे तुरंत निाकलना अनिवार्य है, और उसे विलंब करना जायज़ नहीं है, यही कथन मालिक, अहमद और जमहूर विद्वानों का है, इसका प्रमाण अल्लाह तआला का यह फरमान है :
وآتوا الزكاة
‘‘और ज़कात अदा करो।”
(आयत में आज्ञा सूचक शैली का उपयोग किया गया है) और आज्ञा सूचक शैली तुरंत का अर्थ देती है. . . ” शरह ‘‘अल-मुहज़्ज़ब” (5/308) से अंत हुआ।
किताब “अल-इक़नाअ्” उसकी शरह “कश्शाफुल क़िनाअ” सहित (2/255) में है कि : “धन के ज़कात को निकालने में उसके अनिवार्य होने के समय से विलंब करना, जबकि उसका निकालना संभव हो, जायज़ नहीं है, अतः उसको तुरंत निकालना अनिवार्य है . . . सिवाय इसके कि जिस पर ज़कात अनिवार्य हुई है वह किसी नुक़सान से डर रहा है तो उसके लिए उसे विलंब करना जायज़ है, इस बात का स्पष्ट प्रमाण यह हदीस है कि : ‘‘न नुक़सान जायज़ है और न नुकसान पहुँचाना जायज है।” . . या धन का मालिक गरीब हो अपनी ज़कात का ज़रूरतमंद हो, उसके निकालने से उसकी किफायत और जीवनयापन बिगड़ सकती हो, और उससे आसानी पैदा होने के समय ज़कात ली जायेगी, क्योंकि रूकावट समाप्त हो गई …’’ अंत हुआ। तथा देखिए “अल-मुगनी” (2/510).
तीसरा :
यदि आपके पास इतना पैसा नहीं है जो आपके व्यापार के सामान की ज़कात निकालने के लिए काफी हो, तो आपके लिए उस तिजारत के सामान से ही ज़कात निकालना अनिवार्य है जिसमें ज़कात अनिवार्य हुई है ; व्यापार के ज़कात को उचित कथन के अनुसार सामान से ही निकालना सही है।
इमाम अबू उबैद क़ासिम बिन सलाम रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“अगर किसी व्यक्ति पर उसकी तिजारत में ज़कात अनिवार्य है, और उसने अपने सामान का मूल्यांकन किया, तो उसकी ज़कात एक मुकम्मल कपड़े, या चौपाये या गुलाम की क़ीमत के बराबर पहुँच गई तो उसने उसी सामान को निकाल दिया और उसे अपने माल की ज़कात करार दिया, तो हमारे निकट वह एहसान (उपकार) करने वाला ज़कात की अदायगी करने वाला होगा, और यदि उसके लिए हल्का (आसान) यह है कि उसे सोने और चाँदी की क़ीमत क़रार दे तो उसके लिए ऐसा करना जायज़ है, तो इस आधार पर हमारे पास व्यापार का सामान है।” अबू उबैद की किताब “अल-अमवाल” (388) से समाप्त हुआ, और उनसे हुमैद बिन ज़न्जवैह ने “अल-अमवाल” (3/974) में उल्लेख किया है।
अगर उस सामान में जो आपके पास है ज़कात के हक़दार गरीब के लिए कोई लाभ की चीज़ नहीं है, और वह सामान उसकी ज़रूरत में से नहीं है तो इन शा अल्लाह आपके लिए उसे विलंब करने में कोई पाप नहीं है यहाँ तक कि उस सामान में से इतना बिक जाए जो ज़कात निकालने के लिए काफी हो।
और यदि आपके पास इतना माल है जो ज़कात का कुछ ही हिस्सा निकालने के लिए काफी है तो उपलब्ध हिस्से को निकालना अनिवार्य है, और जो हिस्सा नहीं निकाला जा सका है वह आपके ऊपर क़र्ज़ बाक़ी रहेगा यहाँ तक कि आप उसे निकालने पर सक्षम हो जायें।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर