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तश्रीक़ के दिनों में अनिवार्य रोज़े की क़ज़ा करना सही नहीं है

السؤال: 21049

मैंने तश्रीक़ के दिनों के प्रति अपनी अनभिज्ञता के कारण रमज़ान के महीने के रोज़े की क़ज़ा करने का फैसला किया। क्या मैं तश्रीक़ के तीन दिनों में से दूसरे दिन को जहाँ से मैंने रोज़ा रखना शुरू किया था, शुमार करूँ या मैं अपने दस दिनों के रोज़े (मासिक धर्म या बीमारी की वजह से) तश्रीक़ के दिनों के बाद जारी करूँ?

الجواب

الحمد لله والصلاة والسلام على رسول الله وآله وبعد.

तश्रीक़ के दिन, ईदुल-अज़्हा के बाद के तीन दिन हैं, और वह ज़ुल-हिज्जा के महीने का ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेरहवाँ दिन है। और इन दिनों का रोज़ा रखना हराम है।

क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः ‘‘तश्रीक के दिन खाने-पीने और अल्लाह तआला को याद करने के दिन हैं।’’ इसे मुस्लिम (हदीस संख्यः 1141) ने नुबैशा अल-हुज़ली की हदीस से रिवायत किया है।

तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "अरफा का दिन, क़ुर्बानी का दिन और तशरीक़ के दिन, ऐ मुसलमानों हमारे ईद (त्योहार) के दिन हैं, और वे खाने और पीने के दिन हैं।’’ इसे नसाई (हदीस संख्याः 3004) तिर्मिज़ी (हदीस संख्याः 773) और अबू दाऊद (हदीस संख्याः 2419) ने उक़बा बिन आमिर की हदीस से रिवायत किया है।)

पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इन दिनों में रोज़ा रखने की रुख्सत केवल हज्जे क़िरान या हज्जे तमत्तो करने वाले उस आदमी को प्रदान की है जो हदी (क़ुर्बानी) का जानवर न पाए। बुखारी (हदीस संख्यः 1998) ने आयशा और इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुम से रिवायत किया है कि उन्हों ने फरमायाः (तश्रीक़ के दिनों में रोज़ा रखने की अनुमति केवल उसी व्यक्ति के लिए है जो हदी (क़ुर्बानी) का जानवर न पाए।)

यही कारण है कि ज्यादातर विद्वान इन दिनों का रोज़ा रखने से मना करते हैं, चाहे वह स्वैच्छिक रूप से हो या क़ज़ा के तौर पर हो या नज़्र (मन्नत) के तौर पर हो। और यदि इन दिनों में कोई रोज़ा रख लेता है तो उसे अमान्य (बातिल) समझते हैं।

राजेह कथन वही है जो जमहूर विद्वानों का है, और इससे केवल वही हाजी अपवाद रखता है जिसके पास हदी (क़ुर्बानी) का जानवर नहीं है।

शैख़ इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह कहते हैं :

(इसी तरह क़ुर्बानी की ईद के दिन और तश्रीक़ के दिनों का रोज़ा नहीं रखा जाएगा, क्योंकि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इससे मना किया है, सिवाय तश्रीक़ के दिनों के, क्योंकि इस बात का सबूत मौजूद है कि विशेष रूप से हज्ज तमत्तो व हज्ज क़िरान करने वाले उस आदमी के लिए इन दिनों का रोज़ा रखना जायज़ है जो हदी (क़ुर्बानी) के जानवर की शक्ति नहीं रखता है . . . रही बात उन दिनों का स्वैच्छिक रूप से या अन्य कारणों से रोज़ा रखने की, तो ईद के दिन की तरह उनका रोज़ा रखना जायज़ नहीं है।

(अशरफ अब्दुल मक़्सूद द्वारा संकलित, फतावा रमजान, पृष्ठः 716, से उद्धरित)

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

‘‘हज्जे क़िरान और हज्जे तमत्तो करने वाले के लिए, यदि वे दोनों हदी (क़ुर्बानी) का जानवर न पाएं, तो इन तीन दिनों का रोज़ा रखना जायज़ है, ताकि उन दोनों के रोज़ा रखने से पहले हज्ज का मौसम समाप्त न हो जाए। लेकिन इनके अलावा किसी और व्यक्ति के लिए इन दिनों का रोज़ा रखना जायज़ नहीं है, यहाँ तक कि यदि किसी व्यक्ति के ज़िम्मे लगातार दो महीने का रोज़ा रखना अनिवार्य है तब भी वह ईद के दिन और उसके बाद तीन दिन तक रोज़ा नहीं रखेगा, फिर (उसके बाद) वह अपने रोज़े जारी रखेगा।

फतावा रमज़ान (पृष्ठः 727)

इस आधार पर, आप ने इन दिनों में रमज़ान की क़ज़ा के तौर पर जो रोज़ा रखा है, वह सही नहीं है और आपके लिए उसे दोहरना (दोबारा रखना) ज़रूरी है।

रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा के लिए यह शर्त नहीं है कि उन दिनों का लगातार रोज़ा रखा जाए, आप क़ज़ा के रोज़ों को लगातार या अलग-अलग (छिटपुट) रख सकते हैं।

प्रश्न संख्या (21697) देखें।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

المصدر

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