क्या गर्भवती महिला पर रमज़ान और आशूरा का रोज़ा रखना अनिवार्य है ?
मैं ने अपनी पत्नी को सलाह दिया कि वह रमज़ान के दौरान रोज़ा न रखे और उसने रोज़ा नहीं रखा क्योंकि वह गर्भवती थी। वह कमज़ोर थी और गर्भावस्था के दौरान वह रक्ताल्पता (खून की कमी) से पीड़ित थी। रमज़ान के अंत में उसने गर्भपात कर दिया जबकि वह बारहवें सप्ताह (तीसरे महीने) में थी, तो उन दिनों के बारे में क्या हुक्म है जिनमें उसने रमज़ान के महीने में रोज़ा तोड़ दिया था ॽ क्या उसके लिए अनिवार्य है कि अगला रमज़ान आने से पूर्व उनकी क़ज़ा कर ले ॽ
क्या उसके लिए सामान्य रूप से रोज़ा रखना जाइज़ है जबकि वह गर्भवती हो ॽ
वह सदैव गर्भावस्था के दौरान रोज़ा रखने पर आग्रह करती है, कोई भी चिकित्सा सबूत कि गर्भावस्था के दौरान रोज़ा रखना भ्रूण को नुकसान नहीं पहुँचाए गा इस संबंध में मदद देगा।
उस गर्भवती महिला के रोज़े का हुक्म जो रोज़ा रखने से प्रभावित होती है
प्रश्न: 21589
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
अल्लाह की प्रशंसा और स्तुति के बाद :
यह प्रश्न तीनों बातों पर आधारित है :
प्रथम : रमज़ान के महीने में गर्भवती महिला के रोज़ा तोड़ने का हुक्म।
दूसरा : रमज़ान में गर्भपात करने पर क्या निष्कर्षित होता है।
तीसरा : रमज़ान के बाद क़ज़ा करने का हुक्म।
जहाँ तक गर्भवती महिला का संबंध है : तो उसके लिए रोज़ा तोड़ना जाइज़ है यदि उसे अधिक गुमान के साथ अपने ऊपर या अपने ऊपर और अपने बच्चे पर नुक़सान का डर है, तथा यदि उसे अपने ऊपर विनाश या सख्त कष्ट और कठिनाई (घातक नुक़सान) का भय है तो उसके लिए ऐसा करना (अर्थात रोज़ा तोड़ देना) अनिवार्य है, और उसके ऊपर बिना किसी फिद्या के क़ज़ा करना अनिवार्य है, और यह बात फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की सर्वसहमति के साथ है। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :
ولا تقتلوا أنفسكم [سورة النساء : 29]
“और अपने आप को क़त्ल न करो।” (सूरतुन्निसा : 29 )
तथा अल्लाह का फरमान है :
ولا تلقوا بأيديكم إلى التهلكة [ سورة البقرة : 195]
“अपने आप को सर्वनाश न करो।” (सूरतुल बकराः 195)
इसी तरह वे लोग इस बात पर भी सहमत हैं कि इस स्थिति में उसके ऊपर फिद्या अनिवार्य नहीं है ; इसलिए कि वह अपने ऊपर खतरा महसूस करने वाले बीमार व्यक्ति के समान है। यदि उसे केवल अपने भ्रूण (गर्भास्थ) पर डर है ; तो कुछ विद्वान इस बात की ओर गए हैं कि : उसके लिए रोज़ा तोड़ना जाइज़ है, और उसके ऊपर क़ज़ा और फिद्या दोनों अनिवार्य है, (और वह प्रति दिन के बदले एक गरीब को खाना खिलाना है।) क्योंकि इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से अल्लाह तआला के फरमान :
وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ [ سورة البقرة : 184]
“और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं फिद्या में एक गरीब को खाना दें।” (सूरतुल बक़राः 184)
के बारे में वर्णित है कि उन्हों ने कहा : यह वयोवृद्ध पुरूष और वयोवृद्ध स्त्री के लिए रूख्सत था कि वे रोज़ा रखने की ताक़त रखते हुए भी रोज़ा तोड़ दें और प्रति दिन की जगह एक गरीब को खाना खिलाएं, तथा गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिला भी जब वे दोनों डर अनुभव करें। अबू दाऊद ने कहा कि अर्थात् अपने बच्चों पर (डर महसूस करें) तो दोनों रोज़ा तोड़ दें।’’ इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 1947) ने वर्णन किया है, और अल्बानी ने इरवाउल गलील (4 / 18, 25) में इसे सही कहा है। (देखिए : अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या 16 / 272)
इस से स्पष्ट हो जाता है कि यदि औरत का रोज़ा रखना उसे नुकसान पहुँचाएगा या उसके गर्भास्थ (भ्रूण) को इतना अधिक नुक़सान पहुँचायेगा तो उसके ऊपर रोज़ा तोड़ देना अनिवार्य है, इस शर्त के साथ कि जो डॉक्टर नुक़सान को निर्धारित कर रहा है वह अपनी बात में भरोसेमंद (विश्वसनीय) हो। यह बात रमज़ान में रोज़ा तोड़ने से संबंधित है।
जहाँ तक आशूरा का प्रश्न है तो उसका रोज़ा वाजिब नहीं है बल्कि वह ऐच्छिक है। और औरत के लिए अपने पति की उपस्थिति में उसकी अनुमति के बिना नफ्ल (स्वैच्छिक) रोज़ा रखना जाइज़ नहीं है, और यदि वह उसे मना कर दे तो उसके लिए उसका आज्ञापालन करना ज़रूरी है, विशेषकर यदि उसके अंदर भ्रूण का हित निहित हो।
रही बात गर्भपात की तो : “यदि मामला ऐसे ही है जैसाकि आपने उल्लेख किया कि उसने अपने गर्भ के तीसरे महीने में गर्भपात कर दिया तो उस से निकलने वाला खून निफास (प्रसव) का खून नहीं है, बल्कि वह इस्तिहाज़ा का खून है, क्योंकि उस से जो निकला (गिरा) है वह मात्र खून का लोथड़ा है उसमें मानव रचना स्पष्ट नहीं हुई है, इस आधार पर वह नमाज़ पढ़ेगी और रोज़ा रखेगी भले ही वह खून को देखती हो, किंतु हर नमाज़ के लिए वह वुज़ू करेगी, तथा उसके ऊपर अनिवार्य है कि जिन दिनों का रोज़ा उसने तोड़ दिया है, तथा जो नमाज़ें उसने छोड़ दी हैं, उनकी क़ज़ा करे।” (देखिए : फतावा स्थायी समितति 10 / 218)
जहाँ तक छूटे हुए दिनों की क़ज़ा का प्रश्न है तो : “जिस आदमी पर भी रमज़ान के कुछ दिन रोज़ा रखने के लिए रह गए हैं उसके लिए आवश्यक है कि वह अगला रमज़ान आने से पहले उनकी क़ज़ा कर ले, और वह शाबान के महीने तक क़ज़ा को विलंब कर सकता है, यदि दूसरा रमज़ान आ गया और उसने बिना किसी उज़्र के उनकी क़ज़ा नहीं की है, तो वह गुनाहगार होगा, और उसके ऊपर बाद में प्रति दिन के बदले एक मस्किीन को खाना खिलाने के साथ साथ क़ज़ा करना अनिवार्य है, जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा के एक समूह ने इसका फत्वा दिया है, खाने की मात्रा हर दिन के बदले शहर के खूराक से आधा साअ है, जो कुछ गरीब लोगों को भुगतान किया जायेगा चाहे वह एक ही आदमी हो।
लेकि यदि वह किसी बीमारी या यात्रा के कारण विलंब करने में माज़ूर है तो उसके ऊपर केवल क़ज़ा अनिवार्य है, उसके ऊपर खाना खिलाना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि अल्लाह तआला का यह फरमान सामान्य है :
وَمَنْ كَانَ مَرِيضاً أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَر [البقرة : 185]
“और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।” (सूरतुल बकराः 185)
और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला है।” (फताव शैख इब्ने बाज़ 15 / 340)
इस्लाम प्रश्न और उत्तर
स्रोत:
शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद