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रोज़े के सही होने की शर्तों में से यह नहीं है कि आप जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ें

प्रश्न: 221480

उस आदमी के रोज़े का क्या हुक्म है जो मस्जिद में जमाअत की नमाज़ छोड़ दे उन लोगों के निकट जो उसे अनिवार्य ठहराते हैं ; क्योंकि जो आदमी लोगों को नमाज़ पढ़ाता है वह सूरतुल फातिहा में स्पष्ट गलती करता है, और इस स्थिति में क्या इस आदमी पर यह अनिवार्य है कि वह अपनी माँ को अपने साथ घर में जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने पर मजबूर करे, या कि यदि उसने घर में अकेले ही नमाज़ पढ़ लिया तो उसके लिए जमाअत का अज्र व सवाब लिखा जायेगा यदि यह व्यक्ति मस्जिद छोड़ने पर अफसोस करता है और दुखी होता है?

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

उत्तर :

हर प्रकार की प्रशंसा
और गुणगान केवल
अल्लाह के लिए
योग्य है।

रोज़े के सही होने
की शर्तों में
से मस्जिद में
जमाअत की नमाज़
पढ़ने की पाबंदी
करना नहीं है,
यहाँ
तक कि उन फुक़हा
(धर्म शास्त्रियों)
के निकट भी जिन्हों
ने जमाअत की नमाज़
के अनिवार्य होने
की बात कही है।
उनमें से किसी
ने कभी यह बात नहीं
कही है कि इसके
बिना रोज़ा सही
नही होता है, या कि
अकेले नमाज़ पढ़ने
से रोज़े का अज्र
व सवाब नष्ट हो
जाता है। अल्लाह
सर्वशक्तिमान
का न्याय और उसकी
दानशीलता इस बात
से बहुत बड़ी है
कि रोज़ा जैसे एक
महान और महत्वपूर्ण
उपासना को एक दूसरी
इबादत – जमाअत के
नमाज़ में कोताही
करने के कारण नष्ट
कर दे, जबकि अल्लाह
सर्वशक्तिमान
का कथन है:


إِنَّ اللَّهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ وَإِنْ تَكُ حَسَنَةً يُضَاعِفْهَا
وَيُؤْتِ مِنْ لَدُنْهُ أَجْرًا عَظِيمًا
[النساء :40]

‘‘निःसंदेह अल्लाह
रत्ती भर भी ज़ुल्म
नहीं करता और यदि
कोई एक नेकी हो
तो वह उसे कई गुना
बढ़ा देगा और अपनी
ओर से बड़ा बदला
देगा।” (सूरतुन्निसा
: 40)

तथा अल्लाह तआला
ने फरमाया :


فَمَنْ يَعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ خَيْرًا يَرَهُ
وَمَنْ
يَعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ شَرًّا يَرَهُ
[الزلزلة: 7-8]

‘‘जो व्यक्ति
एक कण के बराबर
अच्छाई करे गा
वह उसे देख लेगा,
और जो
आदमी एक कण के बराबर
बुराई करे गा,
वह उसे
देख लेगा।’’ (सूरतुज़
जलज़ला : 7 – 8(.

तथा प्रश्न करनेवाले
के लिए नसीहत यह
है कि वह अपने प्रश्न
में घृणित तकल्लुफ
और अतिश्योक्ति
की ओर लौटने वाले
रूपों पर ध्यान
दे :

उनमें सर्व प्रथम
रोज़े के सही होने
को जमाअत की नमाज़
के साथ जोड़ना
और संबंधित
करना है, और इसका
हुक्म उल्लेख किया
जा चुका है।

दूसरा
: माँ
को उसके बेटे के
साथ जमाअत की नमाज़
पढ़ने पर मजबूर
करने के बारे में
प्रश्न करना।जबकि मुसलमान
जानता है कि माता
पिता का अल्लाह
के यहाँ क्या महान
हक़ है, और बेटे पर
उन दोनों के प्रति
नर्मी अपनाना,
मीठी
बोल बोलना, शिष्ट
व्यवहार करना अनिवार्य
है। तो इसके साथ
मजबूर करना और
ज़बरदस्ती करना
कैसे एकत्र हो
सकता है, और क्या
किसी को इबादत
पर मजबूर किया
जा सकता है !! या कि
मजबूरी के साथ
कोई इबादत सही
हो सकती है !! तो फिर
उस समय क्या हुक्म
होगा जब ज़ोर-ज़बरदस्ती
माँ पर हो जिसके
लिए सम्मान, नेकी
और उपकार का सबसे
बड़ा हिस्सा है !!

यह सब चीज़ें हमसे
इस बात का आहवान
करती हैं कि हम
आपको मस्जिद में
जमाअत की नमाज़
छोड़ने के कारण
के बारे में एक
बार फिर विचार
करने की नसीहत
करें।शायद
कि इस मामले में
विस्तार है और
आपको पता नहीं
है, शायद शैतान
आपको जमाअत छोड़ने
में अतिशयोक्ति
करने पर उकसाता
है आपके दिल में
स्पष्ट त्रुटि
की कल्पना पैदा
करके जो फातिहा
और इमाम की नमाज़
को बातिल कर देती
है। और आप इसे असंभव
न समझें, क्योंकि
शैतान मनुष्य के
लिए हर रास्ते
पर बैठता है ताकि
उसे अल्लाह के
रास्ते से रोक
सके, और ताकि उसे
उसके दीन और दुनिया
के मामलें में
तकल्लुफ और सख्ती
पर उभारे। इसलिए
आप उसके वस्वसों
(भ्रम) का आसान शिकार
बनने से बचें,
और ज्ञान,
संतुलति
व्यवहार और स्थिरता
अपनाकर मज़बूत हो
जाएं। बहरहाल,
जिसने
जमाअत के कारणों
को अपनाया और उसका
लालायित बना तथा
उसके लिए प्रयास
किया, और उसे उससे
किसी सर्व सहमति
से प्रमाणित शरई
उज़्र, जैसे कि बीमारी
इत्यादि के अलावा
किसी चीज़ ने नहीं
रोका, तो हमें आशा
है कि अल्लाह सर्वशक्तिमान
उसे अपनी दानशीलता
से जमाअत की नमाज़
का पूरा सवाब देगा।
जैसाकि नबी सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्लम
ने अपने इस कथन
के द्वारा हमें
इस बात की सूचना
दी है कि : ”जब बंदा
बीमार हो जाए या
सफर में हो तो उसके
लिए उसी के समान
(अमल) लिखा जाता
है जो वह निवासी
होने और स्वस्थ्य
होने की अवस्था
में किया करता
था।’’ इसे बुखारी
(हदीस संख्या :
2996) ने रिवायत किया
है।

अल्लामा सअदी
रहिमहुल्लाह ने
फरमाया:

‘‘अमल
करने वाले के दिल
में स्थापित विश्वास
और इख्लास (निःस्वार्थतात)
के एतिबार से कार्यों
का पुण्य (सवाब)
एक दूसरे से बेहतर
और बड़ा होता है, यहाँ तक
कि सच्ची नीयत
वाला – विशेषकर
यदि उसके साथ कार्य
भी शामिल हो जिसपर
वह सक्षम है – अमल
करने वाले से जा
मिलता है, अल्लाह
तआला ने फरमाया:


وَمَن يَخْرُجْ مِن بَيْتِهِ مُهَاجِرًا إِلَى اللهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ يُدْرِكْهُ
الْمَوْتُ فَقَدْ وَقَعَ أَجْرُهُ عَلى اللهِ
[النساء:100]

‘‘और जो व्यक्ति
अपने घर से अल्लाह
और उसके रसूल की
ओर निकले फिर उसकी
मृत्यु हो जाए,
तो उसका प्रतिदान
अल्लाह के ज़िम्मे
हो गया।”
(सूरतुन्निसाः
100)

तथा सहीह बुखारी
में मरफूअन रिवायत
है : ‘‘जब बंदा बीमार
हो जाए या सफर में
हो तो उसके लिए
उसी के समान (अमल)
लिखा जाता है जो
वह निवासी होने
और स्वस्थ्य होने
की अवस्था में
किया करता था।’’

तथा फरमायाः ”मदीना
में कुछ ऐसे लोग
हैं कि तुम ने जो
भी रास्ता चला
है, और जो भी घाटी
तय की है, वे तुम्हारे
साथ थे – अर्थात:
अपनी नीयतों,
दिलों
और सवाब में – उन्हें
उज़्र ने रोक लिया
है।’’ तथा जब बंदा
भलाई का इरादा
करे फिर उसके लिए
अमल करना मुक़द्दर
न हो, तो उसका इच्छा
और इरादा करना
एक मुकम्मल नेकी
लिखा जाता है।’’

‘‘बहजतो
क़ुलूबिल अबरार
व क़ुर्रतो उयूनिल
अख्यार’’ (पृष्ठ
16)

तथा अधिक जानकारी
के लिए उत्तर संख्या
(194317) देखिए।

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर

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