अगर कोई आदमी आकर नमाज़ में शामिल हो जाए और इमाम रुकू से उठ खड़ा हो, लेकिन उसने “अल्लाहु अकबर” नहीं कहा, तो क्या यह उसके लिए रकअत मानी जाएगी या नहींॽ और क्योंॽ
रकअत कैसे मिलती है?
प्रश्न: 22155
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
यदि इमाम के रुकू की स्थिति में होने के समय कोई व्यक्ति जमाअत में शामिल होता है, तो उसकी निम्नलिखित तीन स्थितियाँ हैं :
1- वह खड़े होकर तकबीरतुल-एहराम (अल्लाहु अकबर) कहे, फिर वह इमाम के रुकू में होने की स्थिति में रुकू में जाए। तो इस स्थिति में वह इमाम के साथ रकअत पाने वाला होगा।
2- वह इमाम के रुकू में होने की स्थिति में तकबीरतुल-एहराम कहे, लेकिन वह इमाम के रुकू से खड़े होने के बाद रुकू करे। इस स्थिति में वह इमाम के साथ रकअत पाने वाला नहीं समझा जाएगा, और उसपर अनिवार्य है कि उसकी क़ज़ा करे।
3- वह तकबीरतुल-एहराम कहे बिना सीधे रुकू में चला जाए। इस स्थिति में उसकी नमाज़ बातिल हो जाती है, क्योंकि उसने नमाज़ के एक रुक्न (आवश्यक हिस्से) को छोड़ दिया है, जो कि तकबीर-ए-तहरीमा है।
“फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की इस बात पर सहमति है कि जिस व्यक्ति नें इमाम को रुकू में पा लिया, उसने रकअत को पा लिया, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है : “जिसने रुकू को पा लिया, तो उसने रकअत को पा लिया।” इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है और अलबानी ने “इरवाउल-ग़लील” (496) में इस हदीस को सहीह कहा है। तथा उन्होंने पृष्ठ 262 में कहा : “इस हदीस को मज़बूत करने वाली चीज़ों में से एक यह तथ्य है कि सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के एक समूह ने इसपर अमल किया है :
पहला : इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु, उन्होंने कहा : “जिसने इमाम को रुकू की स्थिति में नहीं पाया, उसने उस रकअत को नहीं पाया …” इसकी सनद सहीह है।
दूसरा : अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा, उन्होंने कहा : “यदि आप इमाम के रुकू में होने की स्थिति में आते हैं और आप इमाम के खड़े होने से पहले अपने हाथों को अपने घुटनों पर रख देते हैं, तो आपने (उस रकअत को) पा लिया।” इसकी इसनाद सहीह है।
तीसरा : ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु, वह कहते थे : “जिस व्यक्ति ने इमाम के सिर उठाने से पहले रकअत (रुकू) को पा लिया, तो वास्तव में उसने रकअत को पा लिया।” इसकी इसनाद जैयिद (अच्छी) है…” उद्धरण समाप्त हुआ।
देखें : अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्यह अल-कुवैतिय्यह (23/133) अल-मुग़्नी (1/298)।
स्रोत:
शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद