यदि कोई इंसान रमज़ान के महीने का रोज़ा बिना किसी उज़्र के छोड़ दे अथवा महीने के बीच ही में जानबूझ कर इफ्तार कर ले (रोज़ा तोड़ दे), तो जिन दिनों का रोज़ा उसने तोड़ दिया है क्या उस पर उनकी क़ज़ा करना अनिवार्य है?
जो व्यक्ति बिना किसी उज़्र के रमज़ान का रोज़ा न रखे अथवा बीच रमज़ान में जानबूझ कर रोज़ा तोड़ दे तो क्या उस पर क़ज़ा करना अनिवार्य है?
प्रश्न: 232694
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
रमज़ान के महीने का रोज़ा रखना इस्लाम के स्तंभों (अर्कान) में से एक स्तंभ है, तथा मुसलमान के लिए बिना किसी उज़्र (कारण) के इस महीने का रोज़ा छोड़ देना हलाल (अनुमेय) नहीं है।
तथा जो व्यक्ति किसी शरई (धार्मिक) उज़्र जैसे बीमारी, यात्रा और मासिक धर्म के कारण रमज़ान का रोज़ा छोड़ दे या बीच रमज़ान में इफ्तार कर ले, तो विद्वानों की सर्वसहमति के अनुसार उस पर छोड़े हुए रोज़ों की क़ज़ा करना अनिवार्य है। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :
(وَمَنْ كَانَ مَرِيضًا أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ) البقرة /185.
"और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।" (सूरतुल बक़रा: 185)
परन्तु जो व्यक्ति रमज़ान के महीने का रोज़ा जानबूझ कर लापरवाही से छोड़ दे, चाहे एक ही दिन का रोज़ा क्यों न हो, इस तरह कि उसने सिरे से रोज़ा रखने का इरादा ही नहीं किया, या रोज़ा रखना शुरू करने के बाद बिना किसी उज़्र के रोज़ा इफ्तार कर लिया (तोड़ दिया) : तो उसने कबीरा गुनाहों (महा पापों) में से एक कबीरा गुनाह (महान पाप) किया है और उस पर तौबा (क्षमा याचना) करना अनिवार्य है।
आम विद्वानों का कहना है कि जिन दिनों का रोज़ा उसने छोड़ दिया है उनकी क़ज़ा करना अनिवार्य है, बल्कि कुछ विद्वानों ने तो इस पर इज्माअ (सर्वसहमति) का उल्लेख किया है।
इब्ने अब्दुल बर्र रहिमहुल्लाह कहते हैं :
“उम्मत ने सर्वसहमति व्यक्त की है और सभी विद्वानों ने उल्लेख किया है कि जिस व्यक्ति ने जानबूझ कर रमज़ान का रोज़ा नहीं रखा, जबकि वह इसकी अनिवार्यता पर ईमान रखता है, परन्तु उसने जानबूझ कर अहंकार और अभिमान के कारण रोज़ा छोड़ दिया, और फिर उसने उससे तौबा कर लिया तो उस पर उसकी क़ज़ा करना अनिवार्य है।” “अल-इस्तिज़्कार” (1/77) से समाप्त हुआ।
इब्ने क़ुदामा अल-मक़्दसी रहिमहुल्लाह कहते हैं :
“हमें इसके बारे में किसी भी मतभेद के बारे में पता नहीं है, क्योंकि रोज़ा उसके ज़िम्मे प्रमाणित है (अर्थात उसकी एक सिद्ध जिम्मेदारी है), अतः उसको अदा किए बिना उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो सकती, और उसने उसे अदा नहीं किया है, इसलिए वह उसी तरह उसके ज़िम्मे बाक़ी है।’’ “अल-मुग़्नी” (4/365) से समाप्त हुआ।
तथा “फतावा स्थायी समिति” (10/143) में है की :
“जो कोई व्यक्ति रोज़ा रखना उसकी अनिवार्यता का इन्कार करते हुए छोड़ दे, तो वह सर्वसहमति से काफिर है। तथा जो कोई आलस्य और लापरवाही से रोज़ा रखना छोड़ दे तो वह काफिर नहीं है, परन्तु वह गंभीर खतरे में है क्योंकि उसने इस्लाम के स्तंभों में से एक ऐसे स्तंभ को छोड़ दिया है जिसके अनिवार्य होने पर विद्वानों की सर्वसहमति है, और वह अधिकारियों द्वारा दंडित किए जाने और इस तरह अनुशासित किए जाने का हक़दार है, जो उसे और उसके जैसे अन्य लोगों को (ऐसा करने से) रोक दे, बल्कि कुछ विद्वानों का यह मानना है कि वह काफिर है।
तथा जो कुछ उसने छोड़ दिया है उस पर उसकी क़ज़ा करना, साथ ही अल्लाह सुब्हानहु व तआला से तौबा करना अनिवार्य है।” समाप्त हुआ।
शैख़ इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह से पूछा गया : “उस व्यक्ति के बारे में क्या हुक्म है जिसने रमज़ान में बिना किसी शरई उज़्र के रोज़ा इफ्तार कर लिया (यानी तोड़ दिया), जबकि वह लगभग सत्रह वर्ष का है और उसके पास कोई उज़्र भी नहीं है, तो उसे क्या करना चाहिए? क्या उस पर क़ज़ा करना अनिवार्य है?”
तो शैख़ ने जवाब दिया : “हाँ, उस पर क़ज़ा करना अनिवार्य है, तथा उस पर अपनी लापरवाही और रोज़ा छोड़ने के कारण अल्लाह सुब्हानहु व तआला से तौबा करना ज़रूरी है।
तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से जो यह वर्णित है कि आप ने फरमाया : (जिस किसी ने रमज़ान का एक रोज़ा बिना रुख़्सत (रियायत) और बीमारी के तोड़ दिया तो उसकी क़ज़ा पूरी नहीं होगी अगरचे वह ज़िन्दगी भर रोज़ा रखे।) तो यह हदीस विद्वानों के निकट ज़ईफ (कमज़ोर) तथा मुज़तरिब है, सही नहीं है।” “फतावा नूरुन अलद् दर्ब” (16/201) से समाप्त हुआ।
तथा कुछ अन्य उलमा इस ओर गए हैं कि जिसने जानबूझ कर रोज़ा छोड़ दिया उस पर क़ज़ा नहीं है बल्कि वह अधिक से अधिक नफ्ली (स्वेच्छिक) रोज़े रखे। और यह ज़ाहिरिय्या का मत है तथा शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या और शैख़ इब्ने उसैमी ने इसी मत को चयन किया है।
हाफिज़ इब्ने रजब हंबली रहिमहुल्लाह कहते हैं : “ज़ाहिरिय्या का मत या उन में से अधिकाँश लोगों का मत यह है कि : जानबूझ कर रोज़ा छोड़ने वाले के ऊपर क़ज़ा नहीं है, और यही मत ईराक़ में शाफेई के साथी अब्दुर्रहमान तथा शाफेई की बेटी के बेटे का भी बयान किया गया है। तथा जानबूझ कर रोज़ा और नमाज़ छोड़ने वाले के बारे में अबू बक्र हुमैदी का भी यही कथन (विचार) है कि उसके लिए इन दोनों की क़ज़ा करना काफी नहीं होगा, इसी तरह हमारे पूर्व अस्हाब के एक समूह जैसे जौज़जानी, अबू मुहम्मद अल-बरबहारी और इब्ने बत़्त़ा वग़ैरा के बयान में भी इसी प्रकार की बात कही गई है।” “फत्हुल बारी” (3/355) से समाप्त हुआ।
शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह कहते हैं : “किसी उज़्र के बिना रोज़ा और नमाज़ छोड़ने वाले की क़ज़ा नही है, और न ही उसकी ओर से वह मान्य होगा।” “अल-इख़्तियारातुल फिक़्हिय्या” (पृष्ठ संख्या : 460) से समाप्त हुआ।
शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह कहते हैं : “यदि कोई व्यक्ति बिना किसी उज़्र के जानबूझ कर सिरे से रोज़ा ही न रखे, तो इस बारे में राजेह मत यही है कि उसके लिए उसकी क़ज़ा करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि उसे इसका कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह उसकी तरफ से कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसलिए कि बुनियादी सिद्धांत यह है कि हर वह इबादत जो एक निश्चित समय के साथ विशिष्ट है, यदि उसे बिना किसी उज़्र के उसके उस निश्चित समय से विलंब कर दिया गया, तो फिर वह (इबादत) उसके करनेवाले की ओर से स्वीकार नहीं की जाएगी।”
“मजमूउल फतावा” (19/89) से समाप्त हुआ।
निष्कर्ष :
जो कोई जानबूझकर रमज़ान के दिनों में से किसी दिन का रोज़ा छोड़ दे तो आम विद्वानों के कथन के अनुसार उस पर उसकी क़ज़ा करना अनिवार्य है, जबकि कुछ विद्वानों का यह मानना है कि क़ज़ा करना धर्मसंगत नहीं है, क्योंकि यह एक ऐसी इबादत है जिसके अदा करने का समय बीत चुका है। परन्तु आम विद्वानों का मत सही होने के अधिक संभावित और वज़नदार है, क्योंकि यह इबादत बन्दे के ज़िम्मे सिद्ध हो चुकी है, अतः इसे पूरा किए बिना वह भार-मुक्त नहीं हो सकता।
और अल्लाह ही सर्वश्रेष्ट ज्ञान रखता है।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर