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यदि मुसाफ़िर असमंजस में था कि वह रोज़ा रखे या न रखे, फिर उसने फ़ज्र उदय होने के बाद रोज़ा रखने का संकल्प कर लिया।

प्रश्न: 249495

कुछ साल पहले मैं रमज़ान के दौरान अपने भाई और उसकी पत्नी के साथ उम्रा के लिए गई थी, और मुझे पता नहीं था कि वे यात्रा में रोज़ा रखेंगे या नहीं। मुझे उनसे पूछने में शर्म आती थी। मैंने सोचा : अगर वे रोज़ा रखते हैं, तो मैं उनके साथ रोज़ा रखूँगी, और यदि वे रोज़ा तोड़ देंते हैं, तो मैं भी उनके साथ रोज़ा तोड़ दूँगी। फिर फज्र हो गई, और मैं अभी भी असमंजस में थी कि मैं रोज़ा रखूँ या नहीं। फिर मेरे भाई ने मुझसे कहा कि उन्होंने रोज़ा रखा है। उस समय मैंने रोज़ा रखने का इरादा किया। लेकिन वह सूरज उगने के बाद था। कुछ दिन पहले मैंने पढ़ा कि रोज़ा रखने के लिए फ़ज्र उदय होने से पहले दृढ़ नीयत करना आवश्यक है। इसलिए मैंने उस दिन के बदले रोज़ा रखने का फैसला किया और मैंने रोज़ा रखा। प्रश्न यह है कि : क्या मेरे ऊपर उसके साथ कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) भी अनिवार्य है या नहीं; क्योंकि यह पाँच साल पहले की बात हैॽ दूसरा प्रश्न यह है कि : मुझे याद आ रहा है कि मेरी बहन भी मेरे साथ असमंजस में थी। तो क्या मैं उसे बतला दूँ या नहीं कि तुमपर रोज़ा रखना अनिवार्य है; क्योंकि मैं निश्चित नहीं हूँ कि वह मेरी तरह असमंजस में पड़ी थी, और मुझे डर है कि वह मुझसे कहेगी कि यह वसवसा (वहम या शैतानी विचार) हैॽ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

अनिवार्य रोज़े की शुद्धता के लिए रात (यानी फ़ज्र के पहले) ही से रोज़े की नीयत करना शर्त (आवश्यक) है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “जिसने फ़ज्र से पहले रोज़े का इरादा नहीं किया, उसका रोज़ा नहीं है।” इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2454), तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 730) और नसाई (हदीस संख्या : 2331) ने रिवयात किया है। तथा नसाई द्वारा वर्णित एक हदीस के शब्द इस प्रकार हैं : “जिसने फ़ज्र से पहले रोज़े की नीयत नहीं की, तो उसका रोज़ा नहीं है।” इस हदीस को अलबानी ने “सहीह अबू दाऊद” में सहीह कहा है।

अतः अगर कोई फ़ज्र उदय होने पर भी असमंजस में है, कि वह रोज़ा रहेगा या नहीं रहेगा, तो उसका रोज़ा सही (शुद्ध) नहीं है।

“असनल-मतालिब” (1/411) में कहा गया है : “रोज़ा रखने में एक विशिष्ट एवं दृढ़ नीयत का होना आवश्यक है, जैसा कि नमाज़ के मामले में है, तथा इस हदीस के कारण : “कार्यों का आधार नीयतों पर है” … अनिवार्य रोज़े के मामले में यह सब फज्र से पहले होना चाहिए, चाहे वह मन्नत की पूर्ति, या क़ज़ा, या कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) का रोज़ा हो।” उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा : “यदि वह व्यक्ति, जिसके लिए रोज़ा तोड़ना अनुमेय है, रमज़ान की पहली रात को कहता है : कल मैं हो सकता है रोज़ा रखूँ और हो सकता है रोज़ा न रखूँ। फिर वह फज्र उदय होने के बाद रोज़ा रखने का दृढ़ इरादा करता है, तो उसका रोज़ा सही नहीं है, क्योंकि वह नीयत में असमंजस का शिकार था।”

“अश-शर्हुल-मुम्ते” (6/362) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इसके आधार पर, इस दिन की क़ज़ा करना अनिवार्य है, और आपने उसके संबंध में अच्छा किया है।

आपको कोई प्रायश्चित करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि निवासी (गैर-यात्री) के लिए केवल एक मामले में प्रायश्चित की आवश्यकता होती है, यदि वह रमज़ान में दिन के दौरान संभोग करके अपना रोज़ा तोड़ देता है।

यदि आपकी बहन ने (भी) असमंजस की अवस्था में रोज़ा रखा था, तो उसके लिए भी क़ज़ा करना आवश्यक है, और आपको चाहिए कि उसे इसके बारे में सूचित कर दें।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

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