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उसने रोज़ा रखने का इरादा किया और कहा : अगर मासिक धर्म आ गया, तो मैं रोज़ा तोड़ दूँगी। तो क्या यह नीयत को लंबित करने के अंतर्गत आता है और क्या उसका रोज़ा सही हैॽ

प्रश्न: 314110

मैं यह मानकर चल रही थी कि मेरी अवधि अगले दिन शुरू होगी। इसलिए मैंने रोज़ा रखने का इरादा किया और मैंने कहा : मैं कल रमज़ान का रोज़ा रखूँगी। और यदि मेरी अवधि शुरू हो जाती है, तो मैं रोज़ा तोड़ दूँगी। क्या मेरा इस तरह से रोज़े की नीयत को लंबित रखना मेरे रोज़े को अमान्य कर देगा, या मेरा रोज़ा सही हैॽ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

रात (अर्थात् फ़ज्र के पहले) ही से रोज़े की दृढ़ नीयत करना अनिवार्य है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “जिसने फ़ज्र से पहले रोज़े का इरादा नहीं किया, उसका रोज़ा नहीं है।” इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2454), तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 730) और नसाई (हदीस संख्या : 2331) ने रिवयात किया है। तथा नसाई द्वारा वर्णित एक हदीस के शब्द इस प्रकार हैं : “जिसने फ़ज्र से पहले रोज़े की नीयत नहीं की, तो उसका रोज़ा नहीं है।” इस हदीस को अलबानी ने “सहीह अबू दाऊद” में सहीह कहा है।

यदि महिला (मासिक धर्म) से पवित्र थी, और उसने अगले दिन रोज़ा रखने का इरादा किया और कहा : “अगर मासिक धर्म आ गया, तो मैं रोज़ा तोड़ दूँगी।”, तो इसमें उसपर कोई आपत्ति नहीं है, और यह नीयत को लंबित करने के तहत नहीं आता है। बल्कि उसकी रोज़े की नीयत सुदृढ़ है।

इमाम अन-नववी रहिमहुल्लाह ने कहा : “यदि रोज़े-दार व्यक्ति अपने रोज़े से निकलने के बारे में संकोच से ग्रस्त है, या उसे किसी निश्चित व्यक्ति के प्रवेश करने आदि पर लंबित कर देता है, तो बहुमत की दृष्टि के अनुसार उसका रोज़ा अमान्य नहीं होगा।” “रौज़तुत्-तालिबीन” (1/333) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इमाम अबुल-क़ासिम अर-राफ़ेई रहिमहुल्लाह ने नमाज़ को बाधित करने में संकोच करने या भविष्य की किसी घटना पर उसे लंबित करने, जिससे वह अमान्य हो जाता है, तथा रोज़े को तोड़ने के बारे में संकोच करने, जो इसे प्रभावित नहीं करता है, इन दोनों के बीच अंतर करने के कारण का उल्लेख किया है। उन्होंने कहा :

“यदि रोज़ा रखने वाले को इस बारे में संकोच है कि : क्या वह अपना रोज़ा तोड़ दे, या नहींॽ या उसे तोड़ने की नीयत को किसी व्यक्ति के आने पर लंबित कर दे, तो अल-मुअज़्ज़म ने उल्लेख किया है कि उसका रोज़ा अमान्य नहीं होगा। और उनके शब्दों से ऐसा लगता है कि इसमें कोई विवाद नहीं है।

तथा इब्नुस-सब्बाग़ ने “किताबुस-सौम” में उल्लेख किया है कि : अबू हामिद ने इसके बारे में दो विचार वर्णन किए हैं…

रोज़ा और नमाज़ के बीच अंतर : यह है कि नमाज़ की शुरुआत और उसका अंत व्यक्ति के इरादे और उसके चयन से संबंधित होता है। लेकिन रोज़े का मामला इसके विपरीत है। क्योंकि जो रात में रोज़ा रखने का इरादा करता है, वह फ़ज्र उदय होने के साथ रोज़ा शुरू करने वाला हो जाता है और सूर्य के अस्त होने पर रोज़े से बाहर निकल जाता है, भले ही वह उनके बारे में न जानता हो।

अगर मामला ऐसा है, तो नमाज़ पर नीयत की कमज़ोरी का प्रभाव रोज़े पर प्रभाव से बढ़कर होगा। इसी कारण रोज़ा शुरू करने से पहले या रोज़ा शुरू होने के बाद भी नीयत करना जायज़ है। लेकिन नमाज़ के मामले में यह जायज़ नहीं है।

इसमें अर्थ यह है कि : नमाज़ क्रियाओं और कथनों का नाम है, जबकि रोज़ा त्यागने और रुकने का नाम है। और कार्यों को त्यागने की अपेक्षा नीयत की अधिक आवश्यकता है।”

“अल-अज़ीज़ शर्ह अल-वजीज़” (1/466) से उद्धरण समाप्त हुआ।

तथा चाहे वह ऐसा कहे या न कहे, यदि मासिक धर्म शुरू हो जाता है, तो उसके लिए रोज़ा तोड़ना अनिवार्य है। इसलिए उसने जो कहा है, उसमें यह बताने के अलावा और कुछ नहीं है कि उसे क्या करना चाहिए।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है। 

स्रोत

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