क्या किसी इबादत का आदी और अभ्यस्त हो जाने की समस्या का कोई हल है। अर्थात जब मैं किसी निश्चित सूरत का पाठ करता हूँ तो मुझे बहुत खुशू (तन्मयता व एकाग्रता) का आभास होता है। लेकिन कुछ दिनों के बाद यह खुशू कमज़ोर हो जाता है, मानो कि मेरा दिल अर्थों को समझने और उनपर विचार करने का आदी हो गया है, और उनके साथ संतुष्ट हो गया है। यही मामला कुछ दुआओं को करने के साथ होता है, तो क्या इसका कोई समाधान हैॽ
आदत और इबादत के बीच
प्रश्न: 327649
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
प्रथम :
“आदत” एक तटस्थ अवधारणा है, इसलिए यह अच्छा है कि कोई व्यक्ति अच्छाई का आदी हो और वह इतना दृढ़ हो कि वह उसे बिना किसी तकल्लुफ के करे। तथा हदीस में वर्णित है : “अच्छाई (मनुष्य की) एक स्वभाविक आदत है और बुराई (मन का) एक हठ है।” इसे इब्ने माजा (हदीस संख्या : 221) और इब्ने हिब्बान ने अपनी “सहीह” (हदीस संख्या : 310) में रिवायत किया है।
आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि उन्होंने कहा : “अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास एक चटाई थी। जिसे आप रात के समय कमरा बना लेते थे और उसमें नमाज़ पढ़ते थे। चुनाँचे लोग आपकी नमाज़ के साथ नमाज़ अदा करने लगे। और दिन के समय आप उसे बिछा देते थे। एक रात, वे लोग आपके पास आए, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ऐ लोगो, तुम वही काम करो जो तुम करने की ताक़त रखते हैं। क्योंकि अल्लाह नहीं थकता यहाँ तक कि तुम ही थक जाओ। और अल्लाह के निकट सबसे प्रिय काम वह है, जिसे निरंतरता के साथ किया जाए, अगरचे वह थोड़ा हो। तथा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के परिवार वाल जब कोई काम करते थे, तो उसपर दृढ़ रहते थे।”
इसे बुखारी (हदीस संख्या : 5861) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 782) ने रिवायत किया है।
और जैसा कि अबुत-तैयिब ने कहा है : "प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके ज़माने से वही है जिसका वह अभ्यस्त (आदी) हो गया हो।"
यह सर्वज्ञात है कि अल्लाह की ओर जाने के रास्ते में बंदे की दृढ़ता व स्थिरता के सबसे बड़े कारणों में से यह है कि : उसके लिए आज्ञाकारिता के ऐसे कार्य हों, जिनकी वह पाबंदी करे, उनका संरक्षण करे और उनका आदी हो जाए। उनमें कोताही और लापरवाही न करे और उनके बारे में आलसी न हो। तथा इसी प्रकार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का काम निरंतर और हमेशा जारी रहने वाला होता था। और अगर आपके परिवार वाले कोई काम करते थे, तो उसे साबित रखते थे अर्थात निरंतर करते थे।
दूसरी बात :
लेकिन जहाँ तक "आदत" के इस अर्थ का संबंध है कि : कोई व्यक्ति इबादत के कार्य को महसूस ही न करे, बल्कि उसे स्वचालित रूप से करे, जिसमें कोई जान न हो, तो यह एक खतरनाक स्थिति है, जिसपर व्यक्ति को ध्यान देना चाहिए।
क्योंकि इबादत का जो प्रतिफल (अज्र व सवाब) है, वह उसमें दिल की उपस्थिति पर निष्कर्षित होता है, जैसा कि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
قَدْ أَفْلَحَ الْمُؤْمِنُونَ * الَّذِينَ هُمْ فِي صَلاتِهِمْ خَاشِعُون [المؤمنون: 1-2]
“वास्तव में ईमान वाले सफल हो गए, जो अपनी नमाज़ों में विनम्रता अपनाते हैं।” (सूरतुल मूमिनून : 1-2)
अतः यह महत्वपूर्ण है कि इबादत में हृदय उपस्थित हो, उससे ग़ाफ़िल (असावधान) न हो।
शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया :
“मैंने एक किताब में एक नसीहत पढ़ी है और वह यह है कि अल्लाह की इबादत को आदत नहीं बनाना चाहिए। एक मुसलमान अल्लाह की इबादत को अल्लाह की इबादत कैसे बनाए और उसे अपनी एक आदत न बनने देॽ अल्लाह आपको अच्छा प्रतिफल प्रदान करे।
उन्होंने जवाब दिया :
“उसका अर्थ यह है कि : आप नमाज़ को एक आदत के रूप में न पढ़ें। आप नमाज़ को अल्लाह की निकटता के कार्य के रूप में पढ़ें, आप उसके द्वारा अल्लाह की निकटता प्राप्त करें, वह आदत की वजह से न हो। यदि आप चाश्त की नमाज़ पढ़ें, तो उसे अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के लिए पढ़ें, इस कारण नहीं कि वह आपकी एक आदत है। इसी प्रकार यदि आप रात में तहज्जुद की नमाज़ पढ़ते हैं, तो आप उसे इसलिए पढ़ें कि वह अल्लाह की निकटता का कार्य है, इसलिए कि वह आज्ञाकारिता है। वह मात्र एक आदत के तौर पर नहीं है, या इसलिए नहीं है कि आपके पिता या माँ ने उसे किया था।” …
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तीसरा :
इबादत में हृदय के उपस्थित होने में सहायक चीज़ों में से कुछ निम्नलिखित हैं :
1- उन्हें विविधतापूर्ण बनाना। चुनाँचे मनुष्य विविध प्रकार की इबादतें करे, जैसे नमाज़, क़ुरआन का पाठ, ज़िक्र, सदक़ा (दान), माता-पिता के साथ सद्व्यवहार, रिश्तेदारी निभाना, बीमार लोगों का दौरा करना और जनाज़ा के पीछे जाना.. और अल्लाह की दया और कृपा है कि इबादत के कार्य बहुत अधिक और विविध हैं।
2- कार्य करते समय नीयत (इरादे) को उपस्थित रखने पर धैर्य करना।
इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने "उद्दतुस-साबिरीन" (65-66) में कहा :
… “काम करते समय धैर्य रखना : चुनाँचे बंदा उसमें कोताही और लापरवाही के कारणों से धैर्य रखे (रुक जाए), तथा नीयत (इरादे) को याद रखने और पूज्य (अल्लाह) के सामने दिल की उपस्थिति पर धैर्य को बनाए रखे और वह उसे अपने मामले में न भूले। क्योंकि आदेश दिए गए काम को करना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति आदेश का पालन करते समय उसका आदेश देने वाले को न भूले, बल्कि वह उसके आदेश में उसको (निरंतर) याद रखे।
यही अल्लाह के निष्ठावान बंदों की इबादत है। इसलिए उसे इबादत को उसके स्तंभों, कर्तव्यों और सुन्नतों के साथ अदा करके उसके हक़ को पूरा करने के लिए धैर्य की आवश्यकता है, तथा उसमें मा’बूद (पूज्य) को याद रखने में भी धैर्य की आवश्यकता होती है। और उसकी इबादत में व्यस्त होकर उसकी याद से ग़ाफिल न हो। इसलिए उसकी अपने दिल से अल्लाह के साथ उपस्थिति उसे अपने अंगों से उसकी इबादत करने से बाधित न करे और न तो शारीरिक अंगों का इबादत में व्यस्त होना, उसके दिल को अल्लाह सर्वशक्तिमान के सामने उपस्थिति से बाधित करे।” उद्धरण समाप्त हुआ।
३- दुआ में परिश्रम करना।
यह अल्लाह के उसके साथ होने तथा बंदे की मदद करने के भाव को मन में उपस्थित रखने पर सहायक सबसे महान कारणों में से है।
4- काम करना न छोड़े।
क्योंकि यह शैतान के साधनों में से है कि वह हृदय की अनुपस्थिति के कारण मनुष्य को काम करने से हतोत्साहित करना है। इसलिए मोमिन को सावधान रहना चाहिए और काम करना जारी रखना चाहिए।
५- इबादत की तैयारी करना और दिल को भटकाने वाली किसी भी चीज़ से दूर रहना।
आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “भोजन की उपस्थिति में नमाज़ न पढ़ी जाए। और न ही उस स्थिति में जब दो दुष्ट चीज़ें अर्थात पेशाब और पाखाना उससे संघर्ष कर रहे हों।” इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 89) ने रिवायत किया है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर