यात्र की कम से कम (न्यूनतम) सीमा क्या है जिस के साथ रोज़ा न रखना जायज़ (वैध) हो जाता हैॽ
रोज़ा तोड़ने और नमाज़ क़स्र करने को जायज़ ठहराने वाले यात्रा की सीमा
प्रश्न: 38079
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
जम्हूर उलमा (विद्वानों की बहुमत) इस तरफ गये हैं कि उस यात्रा की दूरी जिस में नमाज़ क़स्र की जाएगी (कम कर पढ़ी जाएगी) और रोज़ेदार रोज़ा तोड़ देगा, अड़तालीस मील है।
इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह "''अल-मुग़नी'' में कहते हैं :
"अबू अब्दुल्लाह (यानी इमाम अहमद) का मत यह है कि सोलह फ़र्सख़ से कम की यात्रा में (नमाज़) क़स्र करना जायज़ (अनुमेय) नहीं है। तथा एक फ़र्सख़ तीन मील का होता है। तो इस तरह यह दूरी अड़तालीस मील हो जाएगी। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने इस का अनुमान लगाते हुए कहा है कि : उस्फान से मक्का तक की दूरी, ताइफ से मक्का तक की दूरी और जद्दा से मक्का तक की दूरी।
इस बुनियाद पर क़स्र की दूरी दो दिन की यात्रा के बराबर होगी। यही इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा और इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा का कथन है, तथा इसी मत की ओर इमाम मालिक, लैस और शाफई रहिमहुमुल्लाह भी गए हैं।'' समाप्त हुआ।
किलोमीटर में इसका अनुमान लगभग अस्सी (80) किलोमीटर के बराबर है।
शैख़ इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह यात्रा के अनुमान के संबंध में “मजमूअ अल-फतावा” (12/267) में कहते हैं :
"जम्हूर अह्ले-इल्म (विद्वानों की बहुमत) का मत यह है कि कार (गाड़ी), विमान, नाव और पानी के जहाज द्वारा यात्रा करने वाले व्यक्ति के लिए यात्रा की दूरी का अनुमान लगभग अस्सी किलोमीटर के बराबर है। इस दूरी या इससे मिलती जुलती दूरी को सफ़र (यात्रा) का नाम दिया जाता है, और इसे परंपरा में सफ़र समझा जाता है क्योंकि मुसलमानों के यहाँ यही परिचित (प्रसिद्ध) है। अतः अगर कोई व्यक्ति ऊंट पर या पैदल या गाड़ियों या विमानों या समुद्री जहाज़ों के द्वारा इस दूरी (अर्थात अस्सी किलोमीटर) या इससे अधिक के लिए यात्रा करे, तो वह एक मुसाफिर (यात्री) है।” समाप्त हुआ।
तथा फत्वा जारी करने की स्थायी समिति (8/90) से क़स्र की दूरी के संबंध में पूछा गया, और क्या एक टैक्सी चालक के लिए जो तीन सौ किलोमीटर से अधिक दूरी तक जाता है, नमाज़ को क़स्र कर के पढ़ना जायज़ है?
तो समिति ने जवाब दिया :
जम्हूर उलमा (विद्वानों की बहुमत) की राय के अनुसार क़स्र को जायज़ ठहराने वाली दूरी की मात्रा लगभग अस्सी किलोमीटर है। तथा टैक्सी चालक या किसी अन्य व्यक्ति के लिए अपनी नमाज़ को क़स्र करना जायज़ है, यदि वह जवाब के आरम्भ में उल्लेख की गई दूरी या उससे अधिक दूरी तय करना चाहता है।’’ समाप्त हुआ।
तथा कुछ विद्वानों का कहना है कि सफ़र को किसी निश्चित दूरी के साथ निर्धारित नहीं किया जाएगा, बल्कि इसके लिए प्रचलित परंपरा की तरफ लौटा जाएगा। अतः परंपरा के अनुसार लोग जिसे सफ़र शुमार करें वही वह सफ़र है जिस पर शरई प्रावधान निष्कर्षित होते हैं, जैसे मुसाफिर के लिए दो नमाजों को एक साथ पढ़ना, क़स्र करना और रोज़ा न रखना।
शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ''अल-फतावा'' (24/106) में कहते हैं :“दलील व प्रमाण उसी के साथ हैं जो नमाज़ क़स्र करने और रोज़ा तोड़ने को सफ़र की जाति (अर्थात हर प्रकार के सफर) में धर्मसंगत क़रार देता है, तथा एक सफ़र को दूसरे सफ़र से विशिष्ट नहीं करता। और यही सही विचार है।” समाप्त हुआ।
''फतावा अरकानुल इस्लाम'' (पेज संख्या : 381) में है कि शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से पूछा गया कि वह दूरी कितनी है कि जिस में मुसाफिर नमाज़ क़स्र कर सकता है। और यह भी पूछा गया कि क्या क़स्र के बिना दो नमाज़ो को इकठ्ठा करना जायज़ है?
तो शैख़ ने जवाब दिया :
कुछ विद्वानों ने नमाज़ क़स्र करने के लिए लगभग तिरासी (83) किलोमीटर की दूरी निर्धारित की है, और कुछ विद्वानों ने इसे प्रचलित प्रथा व परंपरा के साथ निर्धारित किया है कि जिसे आम बोल चाल में सफ़र कहा जाए वह सफ़र है चाहे उसकी दूरी अस्सी किलोमीटर तक न पहुंचती हो। और जिसे लोग सफ़र न कहें तो वह सफ़र नहीं है, चाहे उस की दूरी सौ किलोमीटर ही क्यों न हो।
और इसी अंतिम राय को शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने भी चुना है। क्योंकि अल्लाह तआला ने क़स्र के जायज़ होने के लिए कोई निश्चित दूरी निर्दधारित नहीं की है, इसी तरह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी कोई निश्चित दूरी निर्धारित नहीं की है।
अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं : “अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब तीन मील की दूरी या तीन फ़र्सख़ की दूरी के लिए निकलते थे तो नमाज़ दो रकअत अदा करते थे।'' इस हदीस को मुस्लिम (हदीस संख्या : 691) ने रिवायत किया है।
शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह की राय सही होने के अधिक निकट है।
तथा यदि उर्फ़ (परंपरागत विचारों) के बीच विवाद हो जाए तो ऐसी हालत में यात्रा की दूरी के निर्धारण के कथन को अपनाने में मनुष्य के लिए कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि यह कई इमामों और मुजतहिद विद्वानों की राय है, इसलिए इसका पालन करने में इन शा अल्लाह कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जब मामला व्यवस्थित हो, तो उर्फे (प्रचलित परंपरा) को अपनाना ही सही है।‘’ समाप्त हुआ।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर