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इस्लाम में हज्ज का स्थान और उसके अनिवार्य होने की शर्तें

प्रश्न: 41949

इस्लाम में हज्ज का स्थान क्या है ? और वह किसके ऊपर अनिवार्य है ?

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

“अल्लाह के पवित्र घर का हज्ज करना इस्लाम का एक स्तंभ है, जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है: “इस्लाम की आधारशिला पाँच चीज़ों पर स्थापित है: इस बात की गवाही (साक्ष्य) देना कि अल्लाह के सिवाय कोई सच्चा पूज्य नहीं और यह कि मुहम्मद अल्लाह के पैगंबर (सेदेष्टा) हैं, नमाज़ क़ायम करना, ज़कात देना, रमज़ान का रोज़ा रखना और अल्लाह के सम्मानित व पवित्र घर का हज्ज करना।”

वह अल्लाह की किताब (क़ुरआन मजीद) और उसके संदेष्टा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत (हदीस) और मुसलमानों की सर्वसहमति के द्वारा फर्ज़ (अनिवार्य) है।

अल्लाह तआला ने फरमाया :

وَلِلَّهِ عَلَى النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْتَطَاعَ إِلَيْهِ سَبِيلاً وَمَنْ كَفَرَ فَإِنَّ اللَّهَ غَنِيٌّ عَنِ الْعَالَمِينَ [آل عمران : 97].

“अल्लाह तआला ने उन लोगों पर जो उस तक पहुँचने का सामर्थ्य रखते हैं इस घर का हज्ज करना अनिवार्य कर दिया है, और जो कोई कुफ्र करे (न माने) तो अल्लाह तआला (उस से बल्कि) सर्व संसार से बेनियाज़ है।” (सूरत आल-इम्रान : 97)

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

“ऐ लोगो! अल्लाह तआला ने तुम्हारे ऊपर हज्ज को अनिवार्य किया है। अतः तुम हज्ज करो…।” (मुस्लिम 2/975)

तथा मुसलमानों का इस पर सर्वसम्मत है, और यह इस्लाम धर्म की अनिवार्य रूप से सर्वज्ञात बातों में से है, अतः जिसने उसके अनिवार्य होने का इनकार किया और वह मुसलमानों के बीच रहनेवालों में से है तो वह काफिर हो जायेगा। परंतु जिसने लापरवाही के तौर पर उसे छोड़ दिया तो वह एक बड़े खतरे पर है ; क्योंकि कुछ विद्वानों का कहना है कि: वह काफिर हो जायेगा। और यह कथन इमाम अहमद रहिमहुल्लाह से एक रिवायत है, लेकिन राजेह (उचित) कथन यह है कि वह नमाज़ के अलावा किसी अन्य अमल के छोड़ देने से काफिर नहीं होगा, अब्दुल्लाह बिन शक़ीक़ रहिमहुल्लाह – जो कि ताबेईन में से हैं – फरमाते हैं कि: “पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा किसी अमल के छोड़ देने को कुफ्र नहीं समझते थे।”

अतः जिस व्यक्ति ने हज्ज करने में लापरवाही की यहाँ तक कि वह मर गया तो राजेह (उचित) कथन के अनुसार वह काफिर नहीं होगा, किंतु वह खतरे की चपेट में है।

इसलिए मुसलमान को चाहिए कि अल्लाह से डरे और जब उसके हक़ में हज्ज के अनिवार्य होने की शर्तें पूरी हो जायें तो हज्ज करने में जल्दी करे। क्योंकि सभी धार्मिक कर्तव्यों (वाजिबात) का पालन करने में जल्दी करना अनिवार्य है सिवाय इसके कि उसके विपरीत कोई दलील आ जाए, तो फिर एक मुसलमान का दिल इस बात से कैसे संतुष्ट रहता है कि वह ताक़त रखते हुए और वहाँ तक पहुँचने की आसानी के बावजूद भी अल्लाह के पवित्र घर का हज्ज करने में जल्दी नहीं करता है ॽ! और वह उसे कैसे विलंब कर देता है जबकि उसे पता नहीं कि वह इस साल के बाद वहाँ पहुँचने की ताक़त न रख सके ॽ! हो सकता है कि वह सक्षम होने के बाद असक्षम हो जाए, और हो सकता है कि धनवान होने के बाद वह निर्धन हो जाए, और ऐसा भी संभव है कि वह मर जाए जबकि उसके ऊपर हज्ज अनिवार्य हो चुका था, फिर उसके वारिस लोग उसकी ओर से उसकी क़ज़ा (छतिपूर्ति) करने में कोताही से काम लें।

जहाँ तक उसके अनिवार्य होने की शर्तों का संबंध है तो वे पाँच हैं :

पहली शर्त : मुसलमान होना है, और उसका विपरीत काफिर होना है, अतः काफिर पर हज्ज अनिवार्य नहीं है, बल्कि यदि काफिर हज्ज करे तो उस से स्वीकार नहीं होगा।

दूसरी शर्त : बालिग होना, अतः जो बालिग नहीं हुआ है उस पर हज्ज अनिवार्य नहीं है, और यदि वह हज्ज करे तो उसका हज्ज ऐच्छिक तौर पर शुद्ध होगा और उसे उसका पुण्य मिलेगा, फिर जब वह बालिग होगा तो वह फर्ज़ हज्ज करेगा, क्योंकि उसके बालिग होने से पहले हज्ज करने से फर्ज़ समाप्त नहीं होगा।

तीसरी शर्त : बुद्धि और उसका विपरीत पालगपन है, अतः पागल व बुद्धिहीन पर हज्ज अनिवार्य नहीं है, और न ही उसकी ओर से हज्ज किया जायेगा।

चौथी शर्त : आजादी है, अतः दास व्यक्ति पर हज्ज अनिवार्य नहीं है, और यदि वह हज्ज करे तो ऐच्छिक तौर पर उसका हज्ज शुद्ध होगा, और जब वह आज़ाद हो जायेगा तो उसके ऊपर फर्ज़ हज्ज करना अनिवार्य होगा, क्योंकि आज़ाद होने से पूर्व उसका हज्ज करना फर्ज़ हज्ज से किफायत नहीं करेगा।

जबकि कुछ विद्वानों का कहना है कि अगर दास व्यक्ति अपने मालिक की अनुमति से हज्ज करे तो वह उसके लिए फर्ज़ हज्ज से काफी होगा। और यही कथन राजेह (उचित) है।

पाँचवीं शर्त : धन और शरीर के द्वारा सक्षम होना। तथा सक्षम होने की शर्त में से औरत के लिए मह्रम का होना भी है। यदि उसका कोई मह्रम नहीं है तो उसके ऊपर हज्ज अनिवार्य नहीं है।” अंत हुआ।

स्रोत

फज़ीलतुश्शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह “फतावा इब्ने उसैमीन” (21/9-11)

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