मैं कुछ लोगों को देखता हूँ कि मदीना मुनव्वरा की ज़ियारत के समय मस्जिदे नबवी और मस्जिदे क़ुबा के साथ साथ मसाजिद सबआ (सात मस्जिदों) के पास भी जाते है, तथा तायफ में उनकी इच्छा होती है कि वे मस्जिद अदास के पास आएं और इसी तरह मक्का की मस्जिदों में भी उनमें ववनमाज़ पढ़ने के लिए जाते हैं, तो इसका क्या हुक्म है ?
उन मज़ारों और मस्जिदों पर जाना जिनमें अल्लाह के पैगंबर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नमाज़ पढ़ी है
प्रश्न: 11669
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
यात्रा से मस्जिदे नबवी का क़सद (इरादा) करना एक धर्मसंगत काम है जिस पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान तर्क स्थापित करता है : ‘‘तीन मस्जिदों के अलावा किसी अन्य स्थान के लिए (उनसे बरकत प्राप्त करने और उन में नमाज़ पढ़ने के लिए) यात्रा न की जाएः मेरी यह मस्जिद, मस्जिदे हराम, और मस्जिदे अक़्सा।’’ इसे बुखारी ने रिवायत किया है और शब्द भी उन्हीं के है। तथा उसमें नमाज़ पढ़ना मस्जिदुल हराम को छोड़कर उसके अलावा अन्य मस्दिजों में एक हज़ार नमाज़ों से बेहतर है।
तथा इसके अतिरिकक्त अन्य स्थान जिनकी ज़ियारत करना बिना सफर के द्वारा उनका क़सद किए हुए धर्मसंगत हैः वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र और आपके दोनों साथियों की क़ब्रों की ज़ियारत, तथा बक़ी वालों की क़ब्रों और उहुद के शहीदों की क़ब्रों और अंतिम जगह मस्जिदे क़ुबा की ज़ियारत है।
जहाँ तक उन क़ब्रों की ज़ियारत का मामला है तो उनकी वैधता नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन: ‘‘मैं ने तुम्हें क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था तो (अब) तुम उनकी ज़ियारत करो।’’ इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
शैखुल इस्लाम -रहिमहुल्लाह- ने फरमाया: ‘‘तथा बक़ीअ वालों और उहुद के शहीदों की क़ब्रों की भी ज़ियारत करना उनके लिए दुआ और इस्तिग़फार करने के लिए मुस्तहब है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसका क़सद करते थे जबकि यह सभी मुसलमान मृतकों के लिए धर्मसंगत है।’’ (मजमूउल फतावा 17/470).
जहाँ तक मस्जिदे क़ुबा की ज़ियारत का संबंध है तो इसका प्रमाण सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम में वर्णित इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस है कि उन्हों ने फरमाया: ‘‘नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सवार होकर और (कभी) पैदल चलकर मस्जिदे क़ुबा आते थे।’’ और एक रिवायत के शब्द में है कि: ‘‘उसमें दो रक्अत नमाज़ पढ़ते थे।’’ इसे बुखारी और मुस्लिम ने रिवायत किया है। तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस फरमान के कारण कि : ‘‘जिस व्यक्ति ने अपने घर में वुज़ू किया फिर मस्जिदे क़ुबा आया और उसमें कोई नमाज़ पढ़ी तो उसे एक उम्रा के समान अज्र मिलेगा।’’ इसे अहमद, नसाई, इब्ने माजा, हाकिम ने रिवायत किया है और हाकिम ने सहीह कहा है, और ज़ह्बी ने उसकी पुष्टि की है, तथा अल्बानी ने सहीहुल जामे (हदीस संख्या : 6154) में उसे सहीह कहा है।
जहाँ तक अन्य शेष मस्जिदों और पुरातात्विक स्थानों की ज़ियारत और यह दावा करने का मामला है कि ‘‘उनकी ज़ियारत करनी चाहिए।’’ तो इस बात का कोई आधार नहीं है, और निम्न कारणों की वजह से उनकी ज़ियारत से रोकना चाहिए :
प्रथम : विशिष्ट रूप से उन मस्जिदों की ज़ियारत करने के बारे में कोई शरई प्रमाण वर्णित नहीं है, जैसाकि मस्जिदे क़ुबा के बारे में मामला है, और इबादतों का आधार जैसा कि सर्वज्ञात है अनुसरण पर है, स्वयं गढ़ लेने पर नहीं है।
दूसरा:
सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत का अनुसरण करने के सबसे अधिक लालसी थे, इसके बावजूद उनके बारे में यह परिचित नहीं है कि उन्हों उन मस्जिदों या पुरातात्विक स्थानों की ज़ियारत की है, यदि यह भलाई का काम होता तो वे इसकी तरफ हम से पहल कर चुके होते।
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया: ‘‘अबू बक्र, उमर, उसमान, अली और मुहाजिरीन व अंसार में से अन्य सभी सर्व प्रथम इस्लाम लानेवाले सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम हज्ज व उम्रा और यात्रा करते हुए मदीना से मक्का जाते थे और उनमें से किसी एक ने भी यह नहीं कहा है कि उसने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के नमाज़ पढ़ने की जगहों को ढूंढ कर वहाँ नमाज़ पढ़ी है, और यह बात सर्वज्ञात है कि अगर यह काम उनके निकट मुस्तहब (ऐच्छिक) होता तो वे उसकी ओर पहल करनेवाले होते, क्योंकि वे लोग अपने अलावा दूसरों के मुक़ाबले में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत को सबसे अधिक जानने वाले और उसकी सबसे बढ़कर अनुसरण करने वाले थे।” (इक़्तिज़ाउस्सिरातिल मुसतक़ीम 2/748).
तीसरा कारण :
उनकी ज़ियारत से निषेध रोकथाम के तौर पर है, और इस निषेध का प्रमाण पुनीत पूर्वजों का कृत्य है और उन में सबसे प्रमुख खलीफा राशिद उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु हैं, चुनाँचे मारूर बिन सुवैद रहिमहुल्लाह से वर्णित है कि उन्हों ने कहा: ‘‘हम उमर बिन खत्ताब के साथ बाहर निकले, तो रास्ते में हमारे सामने एक मस्जिद पड़ी तो लोग दौड़कर उसमें नमाज़ पढ़ने लगे, इस पर उमर ने कहा : इन लोगों का क्या मामला है ॽ लोगों ने कहा : यह एक ऐसी मस्जिद है जिसमें अल्लह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नमाज़ पढ़ी है। तो उमर ने फरमाया : ऐ लोगो! तुम से पहले जो लोग थे वे इसी तरह की चीज़ों का पालन करने यहाँ तक कि उन्हें मंदिर बना लेने के कारण सर्वनाश हो गए, अतः जिसे उसके अंदर कोई नमाज़ पेश आ जाए, तो वह नमाज़ पढ़े और जिसे उसके अंदर कोई नमाज़ पेश न आए तो वह चलता बने।” (इसे इब्ने वज़्ज़ाह ने अपनी किताब “अल-बिदओ वन-नह्यो अन्हा” में उल्लेख किया है और इब्ने तैमिय्या ने अल-मजमूअ (1/281) में सही कहा है).
शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह ने इस कहानी पर टिप्पणी करते हुए फरमाया :
“जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस स्थान का उसमें नमाज़ पढ़ने के लिए विशिष्ट करने का क़सद (इरादा) नहीं किया था, बल्कि आप ने उसमें इसलिए नमाज़ पढ़ी थी क्योंकि वह आपके पड़ाव करने की जगह थी, तो उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने यह विचार किया कि इरादे में सहमति के बिना मात्र काम के रूप में भागीदारी करना अनुसरण और पालन नहीं है, बल्कि उस स्थान को नमाज़ के साथ विशिष्ट करना यहूदियों व ईसाईयों की उन बिदअतों (नवाचारों) में से है जिनके कारण वे नष्ट कर दिए गए थे, और मुसलमानों को इस काम में उनकी समानता अपनाने से रोका है, इसका करने वाला रूप में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की समानता अपनाने वाला है, और इरादे में, जो कि हृदय का काम है, यहूदियों और ईसाईयों की समानता अपनाने वाला है, और यही मूल सिद्धांत है, क्योंकि नीयत (इरादा) में अनुसरण करना काम के रूप में अनुसरण करने से अधिक प्रभावकारी है।’’ (मजमूउल फतावा 1/281).
तथा एक अन्य कहानी में वर्णित है कि उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु को सूचना मिली कि कुछ लोग उस पेड़ के पास आते हैं जिसके नीचे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बैअत की गई थी तो आप ने उसके बारे में आदेश दिया तो उसे काट दिया गया।” (इसे इब्ने वज़्ज़ाह ने अपनी कितबा “अल-बिदओ वन्-नह्यो अन्हा” में और इब्ने अबी शैबा ने अपने मुसन्नफ में उल्लेख किया है, और इब्ने हजर ने फत्हुल बारी 7/448 में उसकी इसनाद को सहीह करार दिया है, और अल्बानी रहिमहुल्लाह ने फरमाया : उसकी इसनाद के लोग भरोसेमंद हैं।)
इब्ने वज़्ज़ाह अल-क़ुर्तुबी रहिमहुल्लाह ने फरमाया : मालिक बिन अनस और उनके अलावा मदीना के अन्य विद्वान क़ुबा और उहुद को छोड़कर उन मस्जिदों और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आसार (चिन्हों) के पास जाने को नापसंद करते थे।’’ ( अल-बिदओ वन्-नह्यो अन्हा, पृष्ठ: 43).
उनके कथन उहुद का मतलब उहुद के शहीदों की क़ब्रों की ज़ियारत करना है।
शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया : “इसीलिए मदीना और उसके अलावा के विद्वानों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मस्जिद के बाद मदीना और उसके आसपास मौजूद मज़ारों में से किसी पर भी जाने को मुसतहब (वांछनीय) नहीं समझा है सिवाय मस्जिदे क़ुबा के क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसके अलावा निर्धारित रूप से किसी अन्य मस्जिद का क़सद करके उसमें नहीं जाते थे।” (मजमूउल फतावा 17/469).
तथा आदरणीय शैख अब्दुल अज़ीज बिन बाज़ रहिमहुल्लाह ने उन स्थानों का उल्लेख करने के बाद जिनकी ज़ियारत करना मदीना के अंदर धर्मसंगत है, फरमाया : “जहाँ तक मसाजिद सब्आ (सात मस्जिदों), मस्जिदुल क़िबलतैन और उनके अलावा उन जगहों की ज़ियारत का संबंध है जिनकी ज़ियारत करने का हज्ज के मनासिक के विषय में लिखने वाले कुछ लेखकों ने उल्लेख्सा किया है तो उसका कोई आधार नहीं है, और मोमिन को चाहिए कि वह हमेशा अनुसरण करे नई बातें न निकाले।” (फतावा इस्लामिया 2/313).
तथा फज़ीतलुश्शैख अल्लामा मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“मस्जिदे नबवी की ज़ियारत, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की कब्र की ज़ियारत, बक़ीअ की ज़ियारत, उहुद के शहीदों की ज़ियारत, और मस्जिदे क़ुबा की ज़ियरीत के अलावा मदीना में कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसकी ज़ियारत की जाय। इनके अलावा जो भी मज़ारात (जियारत के स्थल) हैं तो उनका कोई आधार नहीं है।’’ (फिक़हुल इबादात पृष्ठ 405).
कुछ लोग यह गुमान कर सकते हैं कि उनकी फज़ीलत का विश्वास न रखने की शर्त उन जगहों या उनके अलावा अन्य पुरातात्विक स्थलों पर जाने के औचित्य के लिए पर्याप्त है, जबकि यह बात निम्नलिखित कारणों से अस्वीकृत है :
प्रथम : सलफ सालेहीन (पुनीत पूर्वजों) ने बिना किसी विस्तार के वहाँ जाने से बिल्कुल रोका है।
दूसरा : उन जगहों पर जाना और विशिष्ट रूप से उनकी ज़ियारत करना क्योंकि वे मदीना की धरती पर हैं जो इस्लामी दावत के उदय की साक्षी है और वहाँ कुछ युद्धों के घटनास्थल हैं, उसकी फज़ीलत का विश्वास रखने का संकेत देता है, क्योंकि अगर दिल के अंदर यह आस्था और विश्वास न होथा तो दिल के अंदर विशिष्ट रूप से उनकी ज़ियारत करने का उत्साह न पैदा होता।
तीसरा : यदि हम विवाद के तौर पर मान लें कि उनकी ज़ियारत के समय उनकी फज़ीलत की आस्था नहीं पाई जाती है, तब भी उनकी ज़ियारत करना ऐसी आस्था के पैदा होने और अवैध चीज़ों के घटित होने का साधन है, और किसी चीज़ के साधन और ज़रीया को बंद करना और रोकथाम करना ऐसी चीज़ों में से हे जिसे शरीयत लेकर आई है जैसा कि यह बात बिल्कुल स्पष्ट है, बल्कि अल्लामा इब्नुल क़ैयिम ने निन्यानबे रूपों का उल्लेख किया है जो इस नियम को इंगित करते हैं, फिर उन्हों ने निन्यानवाँ रूप उल्लेख करने के बाद फरमाया:
‘‘साधनों (ज़रीयों) के दरवाज़े को बंद करना (रोकथाम करना) शरीयत की तकलीफ का एक चौथाई हिस्सा है, क्योंकि वह या तो आदेश है या निषेद्ध है, और आदेश के दो प्रकार हैं: एक जो स्वयं मक़सूद है, और दूसरा: मक़सूद का वसीला और साधन है, और निषेद्ध के दो प्रकार है, उनमें से एक निषद्ध वह है जो अपने आप में एक दुष्ट और बुराई है। दूसरा: जो किसी बुराई का रास्ता और साधन है, तो हराम तक पहुँचाने वाले साधनों को बंद करना दीन का एक चौथाई भाग है।’’ (एलामुल मुवक़्क़ेईन 3/143)
चौथा : गवाँर लोगों को धोखे में डालना और उन्हे भ्रष्ट करना है, जब वे उन मस्जिदों या पुरातात्विक स्थानों की ज़ियारत करने वालों की बाहुल्यता को देखते हैं तो यह विश्वास कर बैठते हैं कि यह एक धर्मसंगत काम है।
पांचवाँ : इसके अंदर विस्तार से काम लेना और सैर सपाटे एवं मनोरंजन के तौर पर पुरातात्विकि स्थानों जैसेकि उहुद पहाड़ और जब्लुन्नूर की ज़ियारत करने के लिए आमंत्रण देना अनेकेश्वरवाद (शिर्क) के साधनों (रास्तों) में से एक साधन है, तथा इफ्ता की स्थायी समिति के फत्वा संख्या (5303) में इस बात के लिए हिरा की गुफा पर चढ़ने से निषेध आया है।, और अल्लाह तआला ही सहायक है।
स्रोत:
पत्रिका अद्-दावह, अंक/1754, पृष्ठ/55