क्या तलाक़ की क़सम खाना हराम है, क्योंकि यह अल्लाह के अलावा की क़सम है?
क्या तलाक़ की क़सम अल्लाह के अलावा की क़सम है?
प्रश्न: 134281
अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।
“अल्लाह के अलावा किसी और चीज़ की क़सम खाना एक बुरा काम है, और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “जो व्यक्ति क़सम खाना चाहे, वह अल्लाह की क़सम खाए या चुप रहे।” तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जिस व्यक्ति ने अल्लाह के अलावा की क़सम खाई, उसने कुफ़्र किया या उसने शिर्क किया।” यह एक सहीह हदीस है। तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जिस व्यक्ति ने अमानत की क़सम खाई वह हममें से नहीं है।” तथा आपने फरमाया : “अपने पिताओं या अपनी माताओं या मूर्तियों की क़सम मत खाओ, तथा अल्लाह की क़सम मत खाओ परंतु इस हाल में कि तुम सच्चे हो।”
यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का हुक्म है, और वह अल्लाह के अलावा किसी और की क़सम खाने का निषेध है, चाहे वह कोई भी हो। इसलिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, या काबा, या अमानत, या किसी के जीवन, या किसी की प्रतिष्ठा की क़सम खाना जायज़ नहीं है; क्योंकि सहीह हदीसों से पता चलता है कि यह निषिद्ध है…
प्रसिद्ध इमाम अबू उमर इब्ने अब्दुल-बर्र रहिमहुल्लाह ने इस बात पर विद्वानों की सर्व सहमति का उल्लेख किया है कि अल्लाह के अलावा किसी और की क़सम खाना जायज़ नहीं है। इसलिए मुसलमानों को आवश्यक रूप से इससे सावधान रहना चाहिए।
जहाँ तक तलाक़ की क़सम खाने का संबंध है, तो वास्तव में यह क़सम नहीं है, भले ही फुक़हा ने इसे क़सम कहा है। यह इस शीर्षक के अंतर्गत नहीं आता है। तलाक़ की क़सम खाने का मतलब है कुछ करने के लिए प्रोत्साहित करने, या किसी चीज़ से रोकने, या किसी चीज़ की पुष्टि करने या किसी चीज़ को झुठलाने के उद्देश्य से तलाक़ को निलंबित करना, जैसे कि वह कहे : अल्लाह की क़सम! मैं नहीं उठूँगा, या अल्लाह की क़सम! मैं फलाने से बात नहीं करूँगा। तो इसे क़सम कहा जाता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति कहता है : “अगर मैं उठता हूँ तो मेरी पत्नी को तलाक़ है, या “अगर मैं फलाने से बात करता हूँ, तो मेरी पत्नी को तलाक़ है, तो यह इस एतिबार से क़सम है अर्थात् इस दृष्टि से कि यह किसी को कुछ करने के लिए आग्रह करने, उसे कुछ करने से रोकने, या किसी चीज़ की पुष्टि करने या किसी चीज़ को असत्य ठहराने पर आधारित है। इस अर्थ में इसे क़सम कहा गया है। इसमें अल्लाह के अलावा किसी अन्य चीज़ की क़सम खाना नहीं पाया जाता है। उसने यह नहीं कहा है कि : तलाक़ की कसम! मैं ऐसा और ऐसा नहीं करूँगा, या तलाक़ की क़सम! मैं फलाने से बात नहीं करूँगा। यह जायज़ नहीं है।
लेकिन अगर वह कहता है : मेरी पत्नी को तलाक़ अगर मैं फलाने से बात करता हूँ, या वह अपनी पत्नी से कहता है "अगर तू ऐसी और ऐसी (अमुक) जगह पर जाती है, तो तुझे तलाक़ है।” या "तुझे तलाक़ है अगर तू ऐसी और ऐसी जगह की यात्रा करती है।” तो यह एक सशर्त (लंबित) तलाक़ है। इसे क़सम कहा जाता है क्योंकि यह इस अर्थ में क़सम के शीर्षक के अंतर्गत आता है कि यह किसी को कुछ करने के लिए प्रेरित करने, या किसी चीज़ से रोकने, या किसी चीज़ की पुष्टि करने या किसी चीज़ को नकारने के उद्देश्य से है। इसके बारे में सही दृष्टिकोण यह है कि यदि उसका इरादा उसे रोकने, या खुद को रोकने के लिए, या किसी दूसरे को ऐसा करने से रोकने के लिए था जिसपर उसने क़सम खाई है, तो उसका हुक्म क़सम का हुक्म है और उसमें क़सम का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) है।
यह हमारे इस कथन का खंडन नहीं करता है कि : अल्लाह के अलावा किसी और चीज़ की क़सम खाना जायज़ नहीं है। क्योंकि वे दो अलग-अलग चीज़ें हैं। अल्लाह के अलावा किसी और चीज़ की क़सम खाना यह है कि वह उदाहरण के तौर पर यह कहे : लात और उज़्ज़ा की क़सम!, फलाने की क़सम!, फलाने के जीवन की क़सम! यह सब अल्लाह के अलावा की क़सम है।
जहाँ तक इस (चर्चित मुद्दे) का संबंध है, तो यह लंबित तलाक़ है, न कि वास्तविक अर्थों में अल्लाह के अलावा किसी और की क़सम खाना है। बल्कि यह किसी चीज़ से रोकने, या किसी चीज़ की पुष्टि करने या किसी चीज़ को नकारने की दृष्टि से क़सम के अर्थ में है।
इसलिए यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसकी पत्नी को तलाक़ है, यदि वह फलाने से बात करता है, तो यह ऐसा है जैसे वह कह रहा है : “अल्लाह की क़सम! मैं फलाने से बात नहीं करूँगा।” या अगर वह – अपनी पत्नी को संबोधित करते हुए – कहता है : “यदि तूने फलाने से बात की, तो तुझे तलाक़ है।”, तो मानो वह उससे यह कह रहा है : "अल्लाह की क़सम! तू फलाने से बात नहीं करेगी।” फिर अगर कुछ गड़बड़ होता है और वह इस तलाक़ की क़सम को तोड़ देता है, तो सही दृष्टिकोण यह है कि वह अपनी क़सम को तोड़ने के लिए क़मस का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) देगा, अर्थात् उसके लिए क़सम का हुक्म है यदि उसका उद्देश्य अपनी पत्नी को या खुद को रोकना था, और उसने तलाक़ देने का इरादा नहीं किया था; बल्कि उसका इरादा केवल इस चीज़ को होने से रोकना था, खुद को या अपनी पत्नी को यह काम करने से, या इस बातचीत से रोकना था। तो इस बात पर कुछ विद्वानों के अनुसार क़सम का हुक्म लागू होगा, और यही दृष्टिकोण सबसे सही है। तथा अधिकांश विद्वानों के अनुसार, तलाक़ पड़ जाएगा।
लेकिन विद्वानों के एक समूह के निकट, यह तलाक़ नहीं पड़ेगा, और यही अधिक सही दृष्टिकोण है। इसी विचार को शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह और इब्नुल-क़य्यिम और पूर्वजों के एक समूह – रहमतुल्लाहि अलैहिम – ने पसंद किया है। क्योंकि यह किसी को कुछ करने के लिए प्रेरित करने, या किसी चीज़ से रोकने, या किसी चीज़ की पुष्टि करने या किसी चीज़ के नकारने की दृष्टि से क़सम के अर्थ में है, लेकिन अल्लाह के अलावा किसी और चीज़ की क़सम खाने को हराम ठहराने में क़सम के अर्थ में नहीं है, क्योंकि यह वास्तव में अल्लाह के अलावा किसी और चीज की क़सम नहीं; बल्कि यह केवल (तलाक़ को) लंबित करना है। इसलिए दोनों के बीच के अंतर को समझना जरूरी है। और अल्लाह बेहतर जानता है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
आदरणीय शैख अब्दुल-अज़ीज़ बिन बाज़ रहिमहुल्लाह
“फतावा नूरुन अला अद्-दर्ब” (1/181-183)।
स्रोत:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर