रोज़े की आयत में वर्णित फ़िद्या (छुड़ौती) की मात्रा (राशि) क्या हैॽ
रोज़े की आयत में वर्णित फ़िद्या (छुड़ौती) की मात्रा
السؤال: 49944
الحمد لله والصلاة والسلام على رسول الله وآله وبعد.
प्रथमः
अगर किसी व्यक्ति को रमज़ान इस अवस्था में मिले कि वह रोज़ा रखने में सक्षम न हो, क्योंकि वह एक बुजुर्ग (बूढ़ा आदमी) है, या ऐसी बीमारी से पीड़ित है जिससे स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं है, तो उसके असमर्थ होने की वजह से उस पर रोज़ा रखना अनिवार्य नहीं हैं। अतः वह रोज़ा नहीं रखेगा और हर दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को खाना खिलागा।
अल्लाह तआला का फरमान हैः
( يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ * أَيَّاماً مَعْدُودَاتٍ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَرِيضاً أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْراً فَهُوَ خَيْرٌ لَهُ وَأَنْ تَصُومُوا خَيْرٌ لَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُونَ ) [البقرة : 183-184].
''ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े रखना अनिवार्य किया गया है जिस प्रकार तुम से पूर्व लोगों पर अनिवार्य किया गया था, ताकि तुम संयम और भय अनुभव करो। गिनती के कुछ दिनों के लिए। इसपर भी तुम में से जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे, और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं फिद्या (छुड़ौती) में एक गरीब को खाना दें। फिर जो अपनी ख़ुशी (स्वेच्छा) से कुछ और नेकी करे तो यह उसी के लिए अच्छा है और यह कि तुम रोज़ा रखो तो तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है, यदि तुम जानते हो।'' (सूरतुल बक़रा : 183-184)
बुखारी (हदीस संख्याः 4505) ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि उन्हों ने कहाः (यह आयत निरस्त नहीं की गई है। बल्कि यह बूढ़े आदमी और बूढ़ी औरत के बारे में है जो रोज़ा रखने का सामर्थ्य नहीं रखते हैं, तो वे दोनों हर दिन के बदले एक ग़रीब व्यक्ति को खाना खिलाएंगे।)
इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह अल-मुग़्नी (4/396) में कहते हैं : अगर बूढ़े आदमी और बूढ़ी महिला के लिए रोज़ा रखना कठिन है और दोनों के लिए गंभीर कठिनाई का कारण बनता है, तो उन दोनों के लिए रोज़ा ना रखना जायज़ है, और उन्हें प्रत्येक दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को खाना खिलाना चाहिए . . . यदि वे एक गरीब व्यक्ति को खिलाने में भी असमर्थ हैं, तो उन्हें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकिः لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَهَا [البقرة : 286] “अल्लाह तआला किसी भी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।” (सूरतुल बक़रा : 286) . . . और वह बीमार व्यक्ति जिसके स्वस्थ होने की उम्मीद न हो, वह रोज़ा नहीं रखेगा और हर दिन के बदले एक गरीब को खाना खिलाएगा; क्योंकि वह बूढ़े व्यक्ति के अर्थ में है।'' संक्षेप के साथ अन्त हुआ।
अल-मौसूअतुल-फिक़्हिय्या (5/117) में है कि :
अहनाफ, शाफेइय्या और हनाबिला इस बात पर सहमत हैं कि रोज़े में फ़िद्या को उसी समय अपनाया जाएगा जब उन छोड़े हुऐ रोज़ों की क़ज़ा करने की संभावना समाप्त हो जाए जिन्हें उसने उस बुढ़ापे की वजह से छोड़ दिया था जिसके साथ वह रोज़ा रखने में सक्षम नहीं था या उस बीमारी की वजह से जिससे स्वस्थ होने की आशा नहीं थी। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान हैः
( وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ) [البقرة : 184].
''और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं फिद्या (छुड़ौती) में एक गरीब को खाना दें।'' (सूरतुल बक़राः 184) इससे अभिप्राय वे लोग हैं जिनके लिए रोज़ा रखना बहुत कठिन है।'' उद्धरण अंत हुआ।
शैख इब्ने उसैमीन ने ''फतावा अस्सियाम'' (पृष्ठः 111) में फरमायाः
''हमारे लिए यह जानना चाहिए कि रोगी दो प्रकार के होते हैं :
प्रथमः ऐसा रोगी जिसके स्वस्थ होने की आशा है, जैसे कि अस्थायी बीमारियों वाले लोग जिनके स्वस्थ होना की उम्मीद होती है। इसका हुक्म वही है, जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान हैः
(فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ) [البقرة : 184].
''तुम में से जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे।'' (सूरतुल बक़राः 184)
उसे केवल इतना करना है कि वह स्वस्थ होने का इंतजार करे फिर रोज़ा रखे। यदि ऐसा होता है कि बीमारी इसी अवस्था में जारी रहती है और वह व्यक्ति ठीक होने से पहले मर जाता है, तो उसके ऊपर कोई पाप नहीं है। क्योंकि अल्लाह ने उसके ऊपर केवल अन्य दिनों में क़ज़ा करना अनिवार्या किया है, लेकिन वह उन अन्य दिनों को पाने से पहले ही मर गया। अतः वह उस व्यक्ति की तरह है जो रमजान शुरू होने से पहले शाबान ही में मर जाए, उसकी ओर से क़ज़ा नहीं की जाएगी।
दूसराः
वह ऐसी बीमारी हो जो मनुष्य के साथ लगी हुई हो जैसे कैंसर की बीमारी – अल्लाह तआला इससे बचाए – गुर्दे की बीमारी, मधुमेह (शूगर) और इसी तरह की दूसरी पुरानी बीमारियां जिनसे रोगी के स्वस्थ होने की आशा न हो। तो ऐसा व्यक्ति रमज़ान में रोज़ा नहीं रखेगा, लेकिन उसके लिए अनिवार्य है कि वह हर दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को खाना खिलाए, जिस तरह कि रोज़ा रखने में असमर्थ वृद्ध पुरुष और महिला रोज़ा तोड़ देते हैं और हर दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को खाना खिलाते हैं। क़ुरआन से इसका प्रमाण अल्लाह तआला का यह फरमान हैः
(وَعَلَى ٱلَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ) [البقرة : 184].
''और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं फिद्या (छुड़ौती) में एक गरीब को खाना दें।'' (सूरतुल बक़राः 184)'' अंत हुआ।
दूसराः
जहाँ तक खाना खिलाने के तरीक़े का संबंध है, तो उसके लिए दो विकल्प हैं, या तो वह हर गरीब व्यक्ति को आधा साअ (अर्थात लगभग डेढ़ किलोग्राम) भोजन जैसे चावल आदि दे दे, और या फिर खाना तैयार कर गरीबों को खाने के लिए आमंत्रित करे।
इमाम बुख़ारी रहिमहुल्लाह कहते हैं :
''अगर बूढ़ा व्यक्ति रोज़ा रखने में असमर्थ हो जाए, तो अनस रज़ियल्लाहु अन्हु ने बूढ़ा होने के बाद एक या दो वर्ष तक प्रत्येक दिन एक गरीब व्यक्ति को रोटी और मांस खिलाया, और रोज़ा नहीं रखा।'' अन्त हुआ।
शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्ला से एक बुजुर्ग महिला के बारे में पूछा गया कि वह रोज़ा रखने में असमर्थ है, तो उसे क्या करना चाहिएॽ
तो उन्हों ने यह जवाब दिया :
“उसे हर दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को क्षेत्र में खाए जाने वाले प्रधान भोजन जैसे खजूर, या चावल आदि का आधा साअ देना चाहिए, जिसका वज़न लगभग डेढ़ किलोग्राम के बराबर होता है। जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा के एक समूह ने इसका फतवा दिया है जिनमें इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा भी शामिल है। यदि वह महिला गरीब है जो गरीब व्यक्ति को खाना खिलाने में असमर्थ है, तो उसे कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। यह कफ़्फ़ारा एक या एक से अधिक लोगों को महीने के आरंभ में या बीच में या अंत में देना जायज़ है। और अल्लाह तआला ही तौफीक़ देने वाला है।'' अन्त हुआ।
''मजमूओ फतावा इब्ने बाज़'' (15/203)।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह “फ़तावा अस्सियाम” (पृष्ठः 111) में कहते हैं किः
“वह बीमार व्यक्ति जिसकी बीमारी स्थायी है तथा बुज़ुर्ग व्यक्ति चाहे वह पुरूष हो या स्त्री, यदि वे रोज़ा रखने में असमर्थ हैं, तो वे हर दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को खना खिलाएंगे। चाहे यह खिलाना इस प्रकार हो कि गरीबों को खाद्यान्न दे दिया जाए, या फिर यह खिलाना निमंत्रण के द्वारा हो कि वह महीने के दिनों की संख्या में गरीब लोगों को आमंत्रित करके उन्हें रात का भोजन कराए, जैसा कि अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु बूढ़ा होने पर किया करते थे। वह तीस गरीबों को इकट्ठा करते और उन्हें रात का खाना खिलाते थे जो कि रमज़ान के महीने के रोज़े के बदले में होता था।'' अन्त हुआ।
स्थायी समिति (11/164) के विद्वानों से उस व्यक्ति के खाना खिलाने के बारे में पूछा गया जो रमजान के महीने में रोज़ा रखने में असमर्थ है जैसे कि बूढ़ा आदिमी, बूढ़ी महिला और वह बीमार व्यक्ति जिसके स्वस्थ होने की आशा न हो।
तो उन्होंने उत्तर दिया:
“जो व्यक्ति बुढ़ापे की वजह से रमज़ान में रोज़ा रखने में असमर्थ है जैसे वृद्ध पुरुष और बुजुर्ग महिला, या उसके लिए रोज़ा रखना बहुत कठिन हो, तो उसके लिए रोज़ा तोड़ने की अनुमति है, लेकिन उसके लिए प्रत्येक दिन के बदले एक गरीब व्यक्ति को गेहूं, या खजूर, या चावल आदि का आधा साअ खाना खिलाना अनिवार्य है, जैसा कि वह अपने परिवार को खिलाता है।
यही हुक्म उस बीमार व्यक्ति पर भी लागू होता है जो रोज़ा रखने में असमर्थ है या उसके लिए रोज़ा रखना बहुत मुश्किल है और उसके स्वस्थ होने की कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :
لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَهَا [البقرة : 286]
“अल्लाह तआला किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।” (सूरतुल बक़रा: 286)
तथा अल्लाह तआला का फरमान हैः
وما جعل عليكم في الدين من حرج [الحج : 78]
“और (अल्लाह ने) तुम्हारे ऊपर दीन के बारे में कोई तंगी नहीं डाली है।” (सूरतुल हज्ज: 78)
और अल्लाह तआला का फरमान हैः
(وَعَلَى ٱلَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ) [البقرة : 184].
''और जो लोग इसकी ताक़त रखते हैं फिद्या (छुड़ौती) में एक गरीब को खाना दें।'' (सूरतुल बक़राः 184)''
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
المصدر:
साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर