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फ़ज़ायले-आमाल (कर्मो के गुण) लोगों के अधिकारों का कफ्फारा (परायश्चित) नहीं बन सकते

प्रश्न: 65649

मैं ने सुना है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है : ''जिस ने ईमान के साथ पुण्य की आशा रखते हुए रमज़ान का रोज़ा रखा तो उसके पिछले (छोटे-छोटे) गुनाह क्षमा कर दिए जाएंगे।'' क्या इस हदीस के अंतर्गत वे पाप भी आते हैं जिन्हें आदमी ने अपने मुसलमान भाइयों के हक़ में जान बूझकर किए हैं, और वह उन पर बहुत लज्जित है. किन्तु वह उनके सामने उस चीज़ को स्वीकार नहीं कर सकता जो उसने उनके साथ किए हैं क्योंकि इस से बहुत समस्याएं पैदा होंगीं ?

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

गुनाहों को मिटाने वाली चीज़ें बहुत हैं, उन्हीं में से : तौबा (पश्चाताप), इस्तिग़फ़ार (क्षमा याचना), आज्ञाकारिता (पूजा के कृत्य करना), तथा जिसने कोई दण्डनीय अपराध किया है उसपर शरई दण्ड स्थापित करना, इत्यादि हैं।

नमाज़, रोज़ा और हज्ज वगैरह जैसे कृत्यों के गुण (फज़ायल) जमहूर विद्वानों के निकट केवल छोटे छोटे पापों को मिटाते हैं, तथा केवल अल्लाह के अधिकारों का कफ्फारा (परायश्चित) बनते हैं।

जहाँ तक उन पापों और अवज्ञाओं की बात है जिनका संबंध लोगों के अधिकारों से है, तो उनका कफ्फारा उनसे तौबा (पश्चाताप) करके ही प्राप्त किया जा सकता है, तथा तौबा की शर्तों में से : मज़लूम को उसका हक़ लौटाना है।

मुस्लिम (हदीस संख्या : 1886) ने अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''शहीद का क़र्ज़ के अलावा हर पाप क्षमा कर दिया जाता है।''

इमाम नववी ने ‘‘शरह सहीह मुस्लिम'' में फरमाया :

''जहाँ तक आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान ''क़र्ज़ के अलावा'' का संबंध है तो इसमें आदमियों के सभी अधिकारों पर चेतावनी दी गई है, और यह कि अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना, शहादत पाना और इनके अलावा पुन्य के अन्य कृत्य लोगों के अधिकारों का कफ्फारा नही बन सकते, वे केवल अल्लाह के अधिकारों का कफ्फारा बनते हैं।'' अंत हुआ।

इब्ने मुफलेह ने ‘‘अल-फुरूअ'' (6/193) में फरमाया :

''शहादत, क़र्ज़ के अलावा का कफ्फारा बन जाता है। हमारे शैख (अर्थात शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह) ने फरमाया : तथा लोगों पर अत्याचार के विषयों जैसे हत्या और अन्याय के अलावा।'' अंत हुआ।

तथा ''अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या'' (धर्म शास्त्र का विश्वकोष) (14/129) में वर्णित हुआ है :

तौबा (पश्चाताप) इस अर्थ में कि अतीत पर पछतावा किया जाय और पुनः उस तरह का काम न करने का संकल्प किया जाए, यह बंदों के किसी भी अधिकार को खत्म करने के लिए र्प्याप्त नहीं है। चुनांचे जिसने किसी का धन चुरा लिया, या उसे हड़प कर लिया, या किसी अन्य तरीक़े से उसके साथ दुर्व्यवहार किया तो वह मात्र पश्चाताप करने, पाप से रूक जाने और दुबारा ऐसा न करने का संकल्प करने से वह जवाबदेही से छुटकारा नहीं पा सकता, बल्कि मज़लूम के हक़ को लौटाना ज़रूरी है, और इस सिद्धांत पर धर्म शास्त्रियों के बीच सर्वसहमति है।'' अंत हुआ।

यह भौतिक अधिकारों जैसे जबरन या धोखे से लिए गए धन के संबंध में है। रही बात नैतिक अधिाकारों की जैसे दोष आरोपण और चुगली, तो यदि मज़लूम को ज़ुल्म के बारे में ज्ञान था तो उससे क्षमा मांगना ज़रूरी है। और यदि उसे इसके बारे में पता नहीं था तो उसे अवगत नहीं करायेगा, बल्कि उसके लिए दुआ करेगा और अल्लाह से क्षमा याचना करेगा। क्योंकि उसे इससे सूचित करना नफरत और घृणा फैलाने का कारण बन सकता है और उनके बीच शत्रुता और द्वेष पैदा कर सकता है।

शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

''सहीह हदीस में है : (जिसके पास उसके भाई का खून, या धन, या आबरू (सतीत्व) से संबंधित कोई अन्याय या छीना हुआ हक़ हो तो वह उसके पास जाकर उस (हक़) से अपने आपको बरी करा ले, इससे पहले कि वह दिन आ जाए जिसमें दिरहम और दिनार नहीं होंगे, बल्कि सिर्फ नेकियाँ और बुराईयाँ होंगी। यदि उसके पास नेकियाँ हैं तो ठीक, अन्यथा उसके साथी की बुराइयों को लेकर इसके ऊपर डाल दिया जायेगा फिर उसे जहन्नम में फेंक दिया जायेगा।'' या जैसा भी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया।

यह उस स्थिति में है जिसमें मज़लूम उसे जानता था। लेकिन यदि उसने उसकी चुगली की है या उस पर आरोप लगाया है और उसे इसके बारे में पता नहीं है, तो कहा गया है कि : उसके तौबा की शर्त में से उसे इसके बारे में सूचित करना है। तथा यह भी कहा गया है कि : ऐसा करना शर्त नहीं है। और यही अधिकांश लोगों का कथन है और यह दोनों कथन इमाम अहमद से वर्णित दो रिवायतें हैं। लेकिन इस तरह के मामले में उनका कथन यह है कि मज़लूम के साथ नेकियाँ करना जैसे – उसके लिए दुआ करना, उसके लिए क्षमा याचना करना, नेक कार्य करके उसे भेंट करना, उसकी ग़ीबत करने और उस पर आरोप लगाने के क़ायम-मुक़ाम बन जायेगा।

हसन बसरी कहते हैं : गीबत (पिशुनता, पीठ पीछे बुराई) करने का परायश्चित यह है कि आप उसके लिए क्षमा याचना करें जिसकी आप ने गीबत की है।'' अंत हुआ।

''मजमूउल फतावा'' (18/189).

तथा स्थायी समिति के विद्वानों ने एक ऐसे आदमी के बारे में जिसने किसी दास से धन चुरा लिया, फरमाया :

यदि वह दास को जानता है या उस व्यक्ति को जानता है जो उसे जानता है : तो उसके लिए ज़रूरी है कि उसे तलाश कर उसके पैसे चाहे चाँदी के रूप में हो या उसके बराबर (कोई मुद्रा) या जिस पर भी उसके साथ सहमति बन जाए, उसे लौटा दे। और यदि वह उसे न जानता हो और उसे पाने से निराश हो जाए : तो वह उसके समान नक़दी पैसे उसके मालिक की ओर से दान कर दे। फिर अगर बाद में उसे पा जाए तो जो कुछ उसने किया है उसे उससे सूचित कर दे। यदि वह उसे स्वीकृति दे दे, तो ठीक और अच्छी बात है। लेकिन यदि वह उसके इस व्यवहार को अस्वीकार कर दे और उससे अपने पैसे की मांग करे : तो वह उसके पैसे उसे लौटा देगा और वह सदक़ा (दान) स्वयं उसका हो जाएगा। तथा उसे चाहिए कि अल्लाह से क्षमा याचना और पश्चाताप करे और उसके लिए दुआ करे।''

''फतावा इस्लामियया'' (4/165).

और अल्लाह तआला ही सबसे बेहतर जानता है।

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर

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